जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

चेहरे पर वैवाहिक झुकाव : स्त्री के भविष्य का ठहराव

चेहरे पर वैवाहिक झुकाव : स्त्री के भविष्य का ठहराव

‘हंस’ की मई,२००९ की वैचारिक उड़ान में जितनी स्त्री-चिन्ता की प्रगतिशीलता नज़र आयी थी, उतनी ही जड़ता से ग्रस्त थी उड़ान की प्रस्थानभूमि , यानी उस का मुखपृष्ठ । मेरे लिए यह समझना मुश्किल होते जा रहा है कि ‘हंस’ जिस के लिए जाना जाता है , उस के ठीक विपरीत मुखपृष्ठ देने की नयी चलन इधर कैसे शुरु हो गयी ? अब तक उस के मुखपृष्ठीय चित्र यथार्थ की अभिव्यक्ति या क्रान्तिकारी आदर्श के संकेतन की क्षमताओं से सने होते आये हैं , जो प्रायः प्रतीकात्मक या रेखाचित्र होते रहे हैं । पर, इधर (यानी उस बार) के उसके नये रुझान किसी संवेदनशील चित्त को उस से कम तकलीफ़ नहीं देते होंगे , जितनी तकलीफ़ मई की भीषण गर्मी में उसके मुखपृष्ठ पर अवतारित नया जोड़ा वैवाहिक सज-धज के कारण झेल रहा होगा । वह जोड़ा चाहे पारस्परिक पसन्द का ही प्रतिफल क्यों न हो , परन्तु वैवाहिक सौन्दर्यशास्त्र की ऊबाऊ जटिलता की तकलीफ़देह स्थितियों से कैसे बच पाएगा ? मुझे यह समझना बाकी है कि यह रंगारंग चित्रण विवाह के निरर्थक कर्मकाण्डों को आलोचना के कठघरे में खड़ा करने का प्रयास है अथवा (हिन्दू-)विवाह के समयखाऊ व थकाऊ प्रक्रमों को ग्लोरिफाई करने का एक बाज़ारवादी प्रयास (ताकि आकर्षण पैदा कर ‘हंस’ की बिक्री बढ़ाई जा सके) ?यदि आलोचना-भाव रहता तो तद्विषयक विचार-लेख पत्रिका के उसी (या तुरत बाद के) अंक में अवश्य रहते । स्त्री-विरोधी हमारी मलिन हो चुकीं , म्रियमाण परंपराओं या पर्व-त्यौहारों (तीज,करवा चौथ आदि) को नवपूँजीवादी ताकतें जिस प्रकार बाज़ार की लॉण्ड्री में चमकाते हुए प्रचार की संजीवनी से उन का कायाकल्प कर रही हैं ; उसी प्रकार का प्रक्रम ‘हंस’ की उक्त चूक से सम्भावित है । युवक-युवती की एक साथ जीवन बिताने की आपसी रज़ामन्दी को लोकतान्त्रिक मुहर लगाने का विकल्प (कोर्ट मैरेज) जहाँ ५५ सालों से सतत विद्यमान हो (विशेष विवाह अधिनियम,१९५४),फिर जिस की तरफ उनकी उन्मुखता जहाँ बढ़ोतरी पर भी हो ; वहाँ ‘हंस’ जैसी पत्रिका का उक्त तरह का विचलन सामन्तवादी और पितृसत्तात्मक कर्मकाण्डों के प्रति आकर्षित कर न सिर्फ युवा पीढ़ी को गुमराह करेगा,बल्कि वह बाज़ार का हमराह बन कर उस के लिए विवाहोपकरणों (भड़कीले लगनौती कपड़े,आभूषण,क्रीम-पाउडर,मौर,मेहन्दी-आलता आदि) को बेचने की ज़मीन भी तैयार करेगा । इन सब का खामियाजा समय और धन के नाश के रूप में इस विकासशील-गरीब देश की पूरी जनता को भुगतना ही पड़ता है , किन्तु सबसे ज्यादा संत्रास झेलती है लड़की ।
· विवाह की लम्बी और भड़कीली विधि दूल्हा बने युवक से कई गुनी बोरियत और थकान में डालती है दुल्हन बनी (यानी बनायी गयी) युवती को । क्या पता वह युवती न हो कर बच्ची ही हो ; तब तो उस की पीड़ा और भी बढ़ जाती है । लड़का तो इस असहजता में कुछ घण्टे तक ही पड़ता है , पर लड़की का ‘दुल्हन’ में रूपान्तरण उसे भौतिक स्थिति के एक डायमेन्शन से दूसरे (अनचाहे) डायमेन्शन में जबरन धकेल देता है । लड़का जहाँ कर्मकाण्ड के समय भी अपनी सुविधाजनक पोशाक (पैण्ट-शर्ट,जीन्स,पाजामा-कुर्ता आदि) में रहता है,वहीं लड़की को साड़ी की पँचगजी लिपटन में जबरन डाल दिया जाता है,भले कल तक वह जीन्स-टीशर्ट या स्पोर्ट शूज पहनती रही हो । (इस में कहीं या अपवाद-स्थिति में सलवार-कुर्ता में रहने की छूट भी लड़की को मिली दिखती है ,तो इज्जत के ओढ़नी-रूपी पहरुए को उस के माथे पर बिना चढ़ाए नहीं ।) यह उस के साथ दो चार घण्टों के लिए नहीं , वरन जीवन भर के लिए, विवाह-समय ही निश्चित कर दिया जाता है । साड़ी के ऊपर दुशाला,जिस के साथ आपादमस्तक गहनों का चुभन-गुदन-मय भार ! लम्बे-लम्बे बालों का बोझ और उस बोझ को घंटे भर सहलाने (केश-संस्कार) की क्रिया तो विवाह के वर्षों पूर्व से ही किसी लड़की के जीवन का अंग बन ही चुकी होती है । विवाह-मंडप लड़की को एक बेजान,गूँगी गुड़िया सी बना कर,उस के पूरे व्यक्तित्व को सजी-धजी देह(मांस) में बदल कर (अक्सर) किसी पराये मर्द को दान कर देता रहा है । कन्यादान आखिर है क्या ? उस की सहज गति को रोकने वाली पोशाक,लम्बी केशराशि,दोनो हाथों में पाव भर चूड़ियों की खनखनाहट,सिर पर मँगटीका,कानों को फाड़ कर पहनाये गये झुमके,नाक को छेदकर डाली गयी नथिया,दोनों पैरों में सौ-सौ ग्राम की पायल,नाखूनपालिश-मेहन्दी-आलते से हाथ-पैरों की बनायी गयी लाली,आँखों में काजल और ललाट् पर बिन्दी----और इन सब के ऊपर डाली जाती है लज्जा की खूनी लाली , जो दुल्हन बनी(बनायी गयी) कन्या की झुकी (झुकायी गयी) आँखों से बढ़ कर उस की सहजस्फूर्त्त शारीरिकता (दैहिक गतिविधि) को झुकाए-सिकुड़ाए रखती है । विवाह की असलियत ये सब भी हैं,न कि केवल वह मंगलसूत्र,जो केवल कन्या के विवाह-चिह्न के तौर पर प्रायोजित है,उसे पुरुष-विशेष के खूँटे में बाँधे रखने के प्रतीक-रूप में । मर्द के विवाहित होने का कोई चिह्न नहीं होता--न देह में,न नाम में । पर, स्त्री (इन चीजों को धारण करते हुए) देह से ही नहीं,बल्कि अपने बदले गये नाम के द्वारा भी यह घोषित करने को बाध्य है कि मैं अब अमुक पुरुष की श्रीमती(मिसेज) बन चुकी हूँ । मर्द विवाह-पूर्व भी मिस्टर(श्री) होता है ,विवाह-बाद भी मिस्टर---पर विवाह स्त्री को ‘मिस’ से ‘मिसेज’ बना कर छोड़ता है । यह भेद इस हद तक है कि स्त्री-देह की नाप-तौलभरी नुमाइश,यानी तथाकथित सौन्दर्य-प्रतियोगिता के भी दो रूप हो गये हैं---‘मिस-कॉण्टेस्ट’ और ‘मिसेज-कॉण्टेस्ट’ ।
· लड़की को वधू,यानी ‘मिस’ को ‘मिसेज’बनाने की प्रक्रिया का आरम्भ ‘लड़की दिखलाने’ की चल पड़ी अर्द्धपूँजीवादी रस्म से ही हो जाता है । लड़की चाहे स्कूल-कॉलेज में कितनी भी स्फूर्त्तिशील या बोल्ड रही हो , चाहे कितनी भी कैरियरनिष्ठ-आत्मनिर्भर रही हो ; पर विवाह-बाज़ार में वह परोसी ही जाती है---दर्शक/क्रेता वरपक्ष की अपेक्षाओं के अनुरूप उसे काँट-छाँट-तराश कर,साड़ी-गहनों से गूँथ कर,शर्म के बोझ-तले दबा कर,चाय-नाश्ते का ट्रे उस के हाथ में थमा कर । मुझे आश्चर्य होता है कि आधुनिक शिक्षा या नौकरी में ढल कर भी ये युवतियाँ अपने साथ की जा रहीं ऐसी तमाम बेहूदगियाँ , स्वयं को ऐसे अपमानकारी ढंग से प्रदर्शित किया जाना सह कैसे लेती हैं ? ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में महादेवी वर्मा का कथन ध्यातव्य है---“विवाह-योग्य कन्या को,बिकने के लिए खड़े पशु की तरह देखना,कुछ गर्व की वस्तु नहीं । जिस प्रकार भावी पति-परिवार के व्यक्ति उसे चला कर,हंसा कर,लिखा-पढा कर देखते हैं तथा लौट कर उस की लम्बाई-चौड़ाई,मोटापन,दुबलापन,नख-शिख आदि के विषय में अपनी धारणाएँ बनाते हैं , उसे सुन कर दास-प्रथा के समय बिकने वाली दासियों की याद आए बिना नहीं रहती।” वैवाहिक परेड में उसे गाय-भैंस सी खड़ी कर ,उस के एक-एक अंग-अदा को टटोल कर,पुराने-नये सवालों के चक्रव्यूह में घेर कर जब वरपक्षीय अभिभावक ‘ओ.के.’ करते हैं,तो किसी कन्या का अहोभाग्य जगता है--‘मैं विवाहार्थ फिट हुई’ का हीन गौरव ! कितना रंक,कितना निर्घृण है ! काश! सोच पातीं ये नवबालाएँ ! लड़की को वरपक्ष के आगे दिखलाने की इस क्रिया को किसी यातना-शिविर से कम मानना लड़की के साथ अन्याय करना होगा । यदि कन्या को भी यह बोध नहीं होता तो उस की भी इन्सानी संवेदनशीलता शक के घेरे में है । उसकी पढ़ाई-लिखाई तो उसी समय शक के घेरे में आ जाती है,जब वह अपने को इस प्रकार परोसे जाने के खिलाफ (बाप-माँ आदि के विरुद्ध) बगावत नहीं करती या यह नहीं समझती कि ‘दिखलाना’ उस का वस्तुकरण है ; उस की जगह वह देखती-पसन्द करती अथवा लड़का-लड़की एक-दूसरे को देखते-दिखलाते,तो कोई दोष नहीं है,अपितु काम्य स्थिति वही है । किन्तु, दिखलाने की यह रीति विवाह-व्यवस्था में स्त्री की हैसियत को रेखांकित कर देने वाली है । ‘दिखलाने’ के रूप में वस्तुकरण के इस प्रारम्भिक प्रतीक का विस्तार शादी के मण्डप में उसे सजा कर नतनयन बैठाने में होता है---जहाँ वह ‘कर्म’ या ‘करण’ की भूमिका में होती है और ‘कर्त्ता’ की भूमिका में होता है ‘लड़का’ ।विवाह का पूरा कर्मकाण्ड ही (बारात,मंगलसूत्र-सिन्दूरदान,सप्तपदी-सात वचन और सब से ऊपर कन्यादान) स्त्री-विरोधी है---पुरुष-वर्चस्व के प्रतीकों से भरा । साथ में,सतत ध्यातव्य है कि लड़का ही कर्मकाण्ड कर रहा होता है,जिस का साधन बनी होती है लड़की ।इस समूचे विषय को विस्तार से स्पष्ट करने की आवश्यकता है,जिस की यहाँ गुंजाइश कम है । मैं इस विषय पर विस्तृत विचार ‘(हिन्दू) विवाह-पद्धति का नारीवादी पोस्टमार्टम’ शीर्षक से प्रस्तुत करना चाहता हूँ । अस्तु !फिलहाल विषय पर लौटें ।
· लड़की को शादी के मण्डप में बैठाने यानी उसे दुल्हन बनाने के पहले हो चुके होते हैं उस के साथ लम्बे समय तक किये गये देहोपचार । विवाह के दस-पन्द्रह दिन पहले से ही लड़की की गोराई के लिए उसे हल्दी का उबटन लगाया जाता है,जो आज भी (विशेषकर गाँवों में)देखा जा सकता है । यह आयोजन औरतों की जमात पूरे लोकसंगीतमय तामझाम के बीच प्रतिदिन एक-आध घण्टे के लिए करती है । खुद जिस सुअरबाड़े में वे कैद की जा चुकी हैं,उस की त्रासदी को अहरह झेलते हुए भी उस से अनजान सी बनीं वे नारियाँ एक नयी सम्भावनाशील बाला को उसी में डालने के लिए इतनी उतावली क्यों रहती हैं ? उत्तर-आधुनिक युग में दूल्हा-दुल्हन की रचना का एक पूरा सिस्टम--उन्हें सजाने-सँवारने का पेशा ही बड़े पैमाने पर शहरों में विकसित हो चुका है । पर्, यहाँ भी एकदम स्पष्ट है कि दुल्हन की शृंगारिक घुटन ज़्यादा है । विवाह-मण्डप में बैठी/बैठायी गयी लड़की पर कुछ काव्य-पंक्तियाँ पेश करने की इज़ाजत चाहता हूँ-----
कितना भी छछनो, पर
शादी का मण्डप तो
नतनयना बैठा कर,
सिन्दूरी रेखा को तेरी जीवन-रेखा
बना कर बस छोड़ेगा ।
इसी एक कृत्य से पूरा सौन्दर्यशास्त्र
इस तन में जोड़ेगा ।
आँखें झुका बैठना ना विनय होगी विद्या की--
युनिवर्सिटी-प्राप्त ज्ञान-विज्ञान या कला की ।
विद्या विश्वास देती , आँखों में आँखें डाल
खुद की अभिव्यक्ति का चमकाती दीप्त भाल ।
फेरे में झुकी चलो--कृति न ये अक्ल की,
यह तो है शर्म सिर्फ ‘लड़की की शक्ल’ की--
जिस पर न इख़्तियार तेरा किसी प्रकार । (‘सुन्दरी’ कविता से)

· लड़की होने के बोझ से झुकी(झुकायी गयी) दुल्हन की जो छवि ‘हंस’(मई,२००९) ने (मुखपृष्ठ पर) पाठक-वर्ग हेतु परोसी,वह स्त्री की गढ़ी गयी पारंपरिक अस्मिता के चाहे लाख अनुकूल लगे,पर किसी संभावनाशील लड़की की मेधा,अर्जित ज्ञान ,कैरियर या आत्मनिर्भरता ही नहीं,बल्कि उस की आँख-कान या हाथ-पैर की शक्ति का भी श्राद्ध करती प्रतीत हो रही है । स्त्री-देह का वैवाहिक मॉडलीकरण विवाह-व्यवस्था के अन्तर्गत उसे पुरुष-भोग की कमनीय व स्वादिष्ट वस्तु में रिड्यूस करने की दिशा में होता है । उस का अगला सीन होता है---सुहागरात के लिए नवविवाहिता की सौन्दर्यमूलक तैयारी का; जिसे अंजाम देने में लड़की की सहेलीनुमा स्त्रियाँ ज्यादा दिलचस्पी लेती हैं (कम से कम फ़िल्में तो यही बताती हैं) । उसे सौन्दर्य के जिन पितृस्थानीय मानकों पर तराशा,लिपा-पोता या ढका जाता है , वे उसे किस ऊब में डालते होंगे । आखिर इस पूरे तामझाम की बोरियत किसलिए ? इसीलिए न कि सुहाग-सेज पर वह सजी-धजी गोश्त की तरह स्वयं के भोगे जाने हेतु प्रतीक्षारत हो जाए । सुहागरात के जो दृश्य (हिन्दी) फ़िल्मों ने कथानक-रूढ़ि की तरह दिखा-दिखा कर बच्चों को जवान किया है,उस का निहितार्थ क्या है ? सुहाग-सेज पर सिकुड़ी बैठी नववधू की प्रतीक्षा क्या उस केले की प्रतीक्षा नहीं है,जो अपने खाने वाले के लिए बेचैन है ? जो धीरे से आएगा और उसे आहिस्ते-आहिस्ते उघाड़ कर मज़े से खाएगा । स्त्री को भोग्या के वास्तविक धरातल पर पटकने में कलाकारों द्वारा गढ़े गये ऐसे मिथकों का कितना योगदान है---इस पर सार्थक बहस होनी चाहिए ।
· सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए जाने जाने वाले ‘हंस’ ने अपने मुखड़े को आधी आबादी के अपमानकारी दृश्य से कैसे दाग़दार कर लिया ? चित्र भी किसी पुस्तक/पत्रिका की भाषा का अंग होता है , वह शब्दों से कम नहीं कहता,बल्कि ज़्यादा दमदार ढंग से कहता है । कोई चाहे कितने भी क्रान्तिकारी विचार रखे,पर उस की प्रस्तुति में यदि भाषा लड़खड़ा जाए अथवा रूढ़िवादी उपमानों/प्रतीकों का सहारा लेने लगे,तो समस्त वैचारिक ऊष्मा भाषा के उसी छेद से निकल जाती है और जाते-जाते अमानवीय रूढ़िवाद के दाग भी छोड़ जाती है । ‘हंस’ का उक्त चित्र पाठक-वर्ग को भ्रमित ही तो करेगा । विवाह-व्यवस्था की विषमता पर उस का ध्यान तो नहीं ही खींचेगा,बल्कि उस के स्त्री-विरोधी,पुरुष-वर्चस्वी रूप को आकर्षक तरीके से पाठकीय अवचेतन का हिस्सा बनाएगा । पत्रिका की उस त्रुटि (क्या पता,त्रुटि की जगह सोच-समझ कर ही वैसा रखा गया हो) से वही खतरा है ,जो ‘कलर्स’चैनल पर आ रहे ‘बालिका वधू’ धारावाहिक के बाल दम्पति को तरह-तरह के उत्पादों के प्रचारार्थ विनियुक्त करने में है । बच्चों (और विशेषकर बच्ची) को असमय विवाह(के नरक) में डाल देने वाली कुप्रथा पर सार्थक टिप्पणी करते इस सिरियल की संवेदना की हवा विज्ञापन-जगत् ने निकाल दी है । उदाहरणार्थ, ‘राजा क्रीम बिस्कुट’ के प्रचार-चित्र को देखा जा सकता है , उस में विवाहग्रस्त बच्ची वधू की बोझिल सज्जा(कपड़े-गहने आदि) ढोती,हाथ में कलम लिए हुई,पति(बच्चे)की ओर ताकते मुस्कुरा रही है और बच्चा-पति आरामदेह पोशाक पहने बिस्कुट खा रहा है । इस दृश्य में बच्ची जिस विषमता की शिकार है, वह बहुकोणीय मर्दवाद से जन्मी है । बाल-विवाह संख्या की दृष्टि से बच्चियों को अधिक तो ग्रसता ही है,बल्कि विवाह-बाद वधू (घर की शोभा,रसोइया,बीमार प्रजनन-मशीन,विविध घातक मूल्यों को ढोती घरेलू क़ैदी आदि) बनने की उन की बाध्यता को देखते हुए भी कहा जा सकता है कि बाल-विवाह बालिकाओं के लिए अधिक त्रासकारी है । अब इन बातों को भुला कर अथवा सिरियल में चित्रित सत्य को भी बिसार कर विज्ञापन ऐसे चित्रण करेगा तो किसे लगेगा कि बाल-विवाह कोई समस्या भी है ? यदि वेश्याओं के बजबजाते नरक को कोठों की वैभव-विलासिता या संगीत-महफ़िलों की सुगन्ध में सराबोर कर के (पाकीज़ा,उमरावजान आदि) फ़िल्में परोसती हैं , तो इस से वेश्या ग्लैमराइज हो उठती है । परिणामस्वरूप,स्त्री के यौन-दलन की संस्थागत क्रूरता ओझल हो जाती है तथा दर्शक-वर्ग में वेश्यावृत्ति के प्रति मोह जगने लगता है । इसी प्रकार, ‘हंस’ का मुखपृष्ठ भी विवाह से जुड़ी सड़ी-गली रस्मों के प्रति बुझ रहे मोह को पुनर्जीवित करने लगता है । इस प्रकार दुल्हन बनना लड़की के लिए व्यक्तित्व-हीनता के साथ-साथ शारीरिक संत्रास,घुटन का भी अनुभव होता है--क्या यह सोच पाते हैं हमारे साहित्यकार या कलाराधक,जब वे घूँघट वाली स्त्री या दुल्हन के कलम/कूँचीतोड़ चित्रांकन में निरत होते हैं अथवा कुछ नहीं तो किसी शहर या घर की सजावट या किसी तरह के वैभव को ‘दुल्हन’ से उपमित करते हैं ? आज़ाद देश के ऐश्वर्यशाली सौन्दर्य को ‘दुल्हन’ में रूपायित कर के (“दुल्हन चली ,हो पहन चली तीन रंग की चोली”) गाते हुए ‘उपकार’ का फ़िल्मकार क्या वैसा सोच पाया होगा ? “ये दुनिया एक दुल्हन जैसी,ये माटी की बिन्दिया; ये मेरा इण्डिया,आई लव माई इण्डिया” गाती आधुनिक देश-भक्त फ़िल्मी पीढ़ी क्या यह सोच पायी होगी कि ऐसा कह कर वह स्त्री की प्रायोजित पीड़ा (‘दुल्हन’) को सहज सुन्दरता में बदलने के अपराध कर रही है ? सती होती स्त्री को परमात्मा के प्रति प्रेम की अनन्यता के लिए उपमा बनाते कबीर क्या ज़रा सा भी सोच पाये होंगे कि ऐसा कर के वे सती-प्रथा को वैचारिक समर्थन दे रहे हैं ? ऐसी भाषा के शिकार बनते कबीर यह क्यों भूल जाते हैं कि भक्त स्वेच्छा से समर्पण करता है , जब कि सती बनती नहीं ,बनायी जाती है,अक्सर विचारधारात्मक दबाव से और यदा-कदा लाठी-डंडों के दबाव से भी । इसी तरह ‘हंस’ जैसी पत्रिकाएँ शायद भूल जाती हैं कि दुल्हन बनती नहीं,बनायी जाती है । यदि किसी लड़की में दुल्हन बनने का शौक दिखता भी है,तो उस के लिए उस के संपादकीय(‘हंस’,मई,२००९/पृष्ठ ४) का ही वाक्य ध्यातव्य है---“जो कुछ स्त्री स्वेच्छा से करती लगती है,वह कहीं भीतर से दिये गये बेनाम आदेश होते हैं । क्या पिंजरे से छोड़ा तोता,स्वेच्छा से फिर वापस पिंजरे में नहीं आ जाता ?”
· यदि उक्त चित्र की प्रस्तुति के औचित्य-साधन हेतु ‘हंस’ की संपादकीय टीम यह कहे कि लोक-रीतियों की खूबसूरती(?) पेश करने में क्या बुराई है, तो उसे चिता पर जल रही (सती होती) स्त्री को भी आत्मोत्सर्ग के गौरवमय दृश्य की तरह लेना चाहिए । सिर्फ शास्त्र-मत ही नहीं,लोक-मत भी इन्सान (खासकर स्त्री) की स्वाधीनता का दलन करता है---क्या यह टीम नहीं मानती ? चित्र में वर वधू के पैर छूने की रीति भी निभा रहा है । क्या इस में स्त्री-पक्षीय कुछ लोक-सत्य दिखलाने हेतु उस ने यह चित्र रखा है ? यदि ऐसा है,तो भी क्या अच्छी बात है ? विवाह का काम्य आदर्श पुरुष के बराबर ही स्त्री की इंसानियत की स्थापना है,न कि उसे देवी की छलनामयी प्रतिष्ठा में जड़ीभूत कर देना । इस एक जगह देवी बन जाने से क्या अन्य जगहों पर उस का दासी बनना,या सेज पर वेश्या बनना क्या रुक जाता है ? बस-ट्रेनों में स्त्रियों को अपनी सीटें देकर मर्दों के खुद खड़े हो जाने मात्र से क्या समझ लें कि घर में उन के बहुमुखी शोषण-दलन या हिंसा की चल रही सर्वव्यापी-बारीक प्रक्रिया अब नहीं रही या वे मर्द अब उस में भागीदार नहीं रहे ? कितना बड़ा ढोंग है यह ! बच्चियों से चरण-स्पर्श नहीं कराते,कुमारी-पूजन करते हैं;पर उन्हीं बच्चियों को घरेलू कामों में जोते रख कर, किताबों से उन की दूरी बनाए रख कर उन्हें बिल्कुल बैल बना डालते हैं । शास्त्रीय विधान में ऐसा कहीं नहीं है कि विवाह-कर्म में लड़का लड़की के पैर छूएगा,इस लिए उक्त क्षणिक महिमा एक सामाजिक विचलन मात्र है । पितृसत्तात्मक शास्त्रीयता के समानान्तर लोक के स्त्रीत्व का यह आग्रह प्रतीत होता है कि कम से कम एक जगह तो लड़के को लड़की के सामने झुकाया जा सके । किन्तु,इस लौकिक रस्म का तीव्र प्रतिवाद भी जड़ पाण्डित्य की तरफ से विवाह-अवसरों पर अक्सर होता रहा है । यह उसी प्रकार की बात है,जिस प्रकार शबरी के द्वारा राम-लखन को बेर खिलाने का प्रसंग तो हर रामायणकार ने लिखा,पर जूठे बेर खिलाने का मधुर प्रसंग सब ने सिरे से ग़ायब कर रखा है ।कारण शायद रामायणकारों का द्विजमन है,जिस में शबरी शूद्र है और साथ में स्त्री भी होने से डबल शूद्र ---उस की जूठन क्षत्रिय भगवान् खाएगा भला ? अस्तु ! ‘हंस’(मई,२००९) के चेहरे पर लगनौती बेला की लगी वह हल्दी,उसे उज्ज्वल तो नहीं ही कर रही है,पर उस पर कालिख जरूर पोत रही है और सब से बढ़ कर हर लड़की के भविष्य को ठसाठस कालिमा में डुबा रही है ।
+.................+
डॉ.रवीन्द्र कुमार पाठक
(व्याख्याता,हिन्दी-विभाग,
जी.एल.ए.कॉलेज,डल्टनगंज(पलामू).झारखण्ड)
ग्राम—पाठकविगहा.पोस्ट-पड़रावाँ(जम्होर).
जिला-औरंगाबाद(बिहार).पिन-८२४१२१