जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

बाल-विवाह , यानी नरक में ठेली गयीं अबोध बच्चियों की आह

भारत में बाल- विवाह को जनवृद्धि का एक जिम्मेदार कारण माना जाताहै ,पर इस का भी समुचित विवेचन नहीं किया जाता । बाल-विवाह वैसे तो लड़के-लड़की दोनो को फाँसने वाली घटना का नाम है,पर सामाजिक सच्चाई यह है कि लड़की इसकी चपेट में अधिक है।उसे बोझ,पराया धन,दूसरे की धरोहर आदि समझा जाता है और जल्दी-से जल्दी उसे ब्याह की लौह्–शृंखला पहना कर सिर का बोझ हल्का करना उचित समझा जाता है। आखिर ‘कन्यादान’ का भी तो महत्त्व है(मानो लड़की इन्सान नहीं,कोई चीज हो) ।‘राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण’(एन.एस.एस.)५२वें का आँकड़ा है कि प्रति हज़ार में, ०-१४ उम्र-सीमा की ब्याही गयीं लड़कियाँ ४ हैं और लड़के भी चार हैं। पर १५-१९ वर्ष की वय सीमा में पुरुष के ब्याहों की संख्या जहाँ ५० (शहरी१९, ग्रामीण६१) है,वहीं स्त्री के ब्याहों की संख्या २६४ (शहरी १२६,ग्रामीण ३१६) है । अर्थात्, १००० में ५० लड़के ही, ,पर लड़कियाँ २६४ । यानी, प्रतिज़ार २१४ लड़कियाँ लड़कों की तुलना मे अधिक ब्याही जाती हैं। यानी, जैसे ही थोड़ी बड़ी हुई लड़की, समाज की आँखों में खटकने लगती है उस की बढ़ोतरी । उसे बिना किसी पुरुष की दासी बनाए,चैन् नहीं पाता वह । फिर तो,यह आँकड़ा सिर्फ़ बाल-विवाह का नहीं लगता । ५० लड़कियाँ ५० लड़कों के साथ विवाह में नाथ दी गयीं,तो भले दिलमेल सम्बन्ध नहीं बना ,पर उम्रगत अनमेलपन की स्थिति तो प्रायः नहीं है । परन्तु, बाकी २१४ लड़कियाँ कहाँ जाती हैं ? स्पष्ट है कि वे अपने से पर्याप्त बड़े या प्रौढ़ मर्द के साथ नत्थी कर दी जाती हैं । ग्रामीण क्षेत्र में तो यह संख्या और ज़्यादा है--३१६ लड़कियाँ,पर १६ लड़के । यानी,२५५ लड़कियाँ उम्र-दृष्टि से अनमेल-विवाह में धकेली जाती हैं । यह तय है कि लड़की जितने ही पहले यौन-जीवन में घसीटी जाएगी,उतने ही बच्चे पैदा करने को अभिशप्त होगी । पर, बात केवल इतनी नहीं है सीधी-सपाट । खेलने-खाने या स्कूल जाने के जो दिन होते हैं (और कौन से दिन ऐसे नहीं होने चाहिए लड़की के लिए?लड़के के लिए तो ऐसे दिन जीवन भर सम्भावित हैं),उन में लड़की बच्चा जनने को बाध्य हो जाती है । कम उम्र में गर्भवती बनायी जाती है ,तो उस का गर्भकाल भी लम्बा खिंच जाता है और वह पीड़ादायी भी ज़्यादा होता है । उस में प्रसव-मौत अधिक सम्भावी हो जाती है । बच्चे भी कमजोर या मृत पैदा होते हैं । कम उम्र की लड़की अबोध होती है,साथ ही विवाह की बेड़ी में वह शिक्षा के अवसर से भी वंचित कर दी गयी होती है । इस कारण, अपनी पीड़ाओं तथा उस के कारणों को भी ना समझ पाती है और ज़्यादा घुटती रहती है । उस की देह को कब्जे में ले लेना उस के पति (जो प्रायः बड़ा या कभी-कभी अधेड़ तक होता है) के लिए ज़्यादा आसान होता है और आसान होता है उसे अपनी अन्धी हवस के गड्ढे में गिरा देना(याद कीजिए फ़िल्म ‘बैण्डेट क्वीन’ ),उसे यौन-रोग दे देना तथा उसकी मासूमियत में उस के पेट को भारी-बेडौल बना देना आसान होता है । लड़की के बाल-विवाह की प्रथा भी तो एक दीर्घकालीन धार्मिक-सांस्कृतिक आधार रखती है । ‘संस्कार-मयूख’ में बौधायन का वचन है कि भले ही अयोग्य वर हो ,पर कन्या को रजस्वला होने के पूर्व ब्याह दें । ‘गौतमधर्मसूत्र’(१-२-२३)वस्त्र पहनने की समझ विकसित होते ही कन्या को ब्याहने की सीख देता है,तो ‘व्यास-स्मृति’(२३) भी कहती है कि अधोवस्त्र पहनने की उम्र होने पर ब्याहना चाहिए । फिर,‘संवर्त स्मृति’ ने तो विवाह-योग्य कन्याओं को चार आयु-वर्गों में बाँटा है---गौरी(८ वर्ष),रोहिणी(९ वर्ष),कन्या(१० वर्ष) और रजस्वला(१० वर्ष से अधिक)। कन्या को छोटी अवस्था में ब्याहने यानी किसी मर्द के बिस्तर पर पटक देने के पीछे की सोच वैदिक काल से चली आ रही एक भय-धारणा की भ्रांति थी,जो स्त्री को भोग्या मानने वाली पुरुष-कामान्धता से उपजी थी । ऋग्वेद के एक मंत्र का भाव था कि कन्या के देह-विकास में सहायक माने जाने वाले सोम,गन्धर्व और अग्नि उस के प्रथम,द्वितीय व तृतीय पति (उपभोक्ता)बन सकते हैं; तब कोई मनुष्य(पुरुष) उस से ब्याह करे,तो उस को चौथा पति बनना पड़ेगा । ‘अत्रि-संहिता’ ने ऋग्वेदोक्त मन्त्र(१०-८५-४०) का भावानुवाद करते कुछ जोड़ कर कहा--- “ पूर्वं स्त्रियः सुरैर्भुक्ता सोमगन्धर्ववह्निभिः भुंजते मानवाः पश्चात् नताःदुष्यन्तिकर्हिचित् ।” यानी, सोम-गन्धर्व-अग्नि – इन देवों द्वारा चखी जा कर भी कोई स्त्री जब मनुष्यों(मर्दों) द्वारा चखी जाती है , तब भी वह दूषित नहीं होती । वाह रे ! क्या भाषा है ! स्त्री-देह की पवित्रता इस उद्देश्य से घोषित की जा रही है कि पुरुष उसे पत्नी बनाने यानी चखने से इन्कार न कर दें ।(क्या यह किसी नारी-देह के दलाल-भड़ुवे की भाषा नहीं लगती?) फिर भी यह खटका तो लगा ही रहता था कि कहीं उक्त देव कन्या को पहले ही चख कर जूठी न कर दें । (कामुकों की देव-कल्पना भी तो कामुक रूप में ही होगी,वह भी वृद्ध देवों द्वारा बच्ची को यौन-बुभुक्षार्थ देखने वाली अनमेल कामुकता !) फिर जूठी हुई (नथ उतारी गयी) कन्या का दान(बिक्री?) कैसे किया जाएगा ? अक्षतयोनि कन्या के दान में ही तो पुण्य मिलता है ! यानी, कन्या रजस्वला हुई नहीं कि उस पर लार टपकाते औरतखोर मर्दों के हक में स्मृतिकारों ने व्यवस्था करनी शुरु कर दी । वहाँ भी करेले को नीम पर चढ़ाया गया,यानी एकमुखी अनमेल विवाह किये गये,अर्थात् कन्या के गले में पर्याप्त बड़े मर्द को लटका दिया गया । ‘मनुस्मृति’(९-९४) ने खुलेआम व्यवस्था दी— त्रिंशवर्षोद्वहेत् कन्यां हृद्यांद्वादशवार्षिकीम् त्र्यष्टवर्षोष्टवर्षी वा धर्मे सीदति सत्वरः यानी, १२ वर्षीया कन्या को ३० वर्षीय मर्द और ८ वर्षीया कन्या को २४ वर्षीय मर्द से विवाहित करना धर्मसंगत है । यानी,वर्तमान कानूनों की दृष्टि से जो बलात्कार है,उस की खुलेआम प्रेरणा हिन्दू-संस्कृति के संविधान कहे जाने वाले ‘मनुस्मृति’ ने दी है । कन्या की उम्र को हर हाल में छोटा रखने का का समर्थन ‘वसिष्ठस्मृति’(८-१),‘गौतमस्मृति’(४-१),‘याज्ञवल्क्य-स्मृति’(१-५२) ने भी किया है । आश्रम-व्यवस्था के शिथिल होने से धीरे-धीरे वर की भी आयु गिरी , जिस से ऐसी भी स्थितियाँ आने लगीं जिन में वर-कन्या की उम्र का भेद ज़्यादा न रह गया । तब,‘बालिका-वधू’ फ़िल्म और धारावाहिक की तरह उभयमुखी बाल-विवाह होने लगे । आज बड़ी संख्या में यह भी व्याप्त है । पर,इस में भी तो बच्ची अधिक पीड़ित होती है । कच्ची उम्र में दासता के संस्थान (विवाह) में भर्ती कर दी जाने से , ‘वधू’(घर की शोभा,रसोइया,प्रजनन-मशीन और समग्रतःघरेलू कैदी) के तमाम आरोपित मूल्यों-जिम्मेदारियों और उन में निहित अन्यायों को झेलती , बच्ची ही तो अधिक संत्रस्त होती है । उस का सब से भयंकर रूप होता है उस का असमय गर्भ से लद जाना । विशेषतः बच्चियों के लिए त्रासकारी---‘बाल-विवाह’ की इस कुरीति को संस्कृति के नाम पर ढोते रहने की अमानुषिक मूढ़ता इतनी आम रही है कि १८९२ ई. में महाराष्ट्र में जब उसे प्रतिबन्धित करने हेतु कानून लाया जा रहा था,तो उस का उग्र विरोध करने वाले पोंगापंथियों के नेता थे बाल गंगाधर तिलक । बच्ची का अनमेल विवाह माने क्या ? उस का खेलना-कूदना,स्कूल जाना(यदि बाप-माँ ने भेजा है,तो) छुड़वा कर,उसे किसी लड़के(अक्सर बड़े-प्रौढ़ मर्द) की दासी बनाते हुए,चिर-परिचित माहौल से सदा-सदा के लिए काट कर,यौन-शोषण में डाल देने—यौन-रोग व गर्भ झेलने,बच्चे पालने तथा लद-फद कपड़ों व शृंगार को ढोते हुए घरेलू काम-काज करते रहने की अन्तहीन शोषण-चक्की के पाटों के बीच धीरे से रख देने का नाम है बाल-विवाह । ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’-१ (एन.एफ.एच.एस. - १) के अनुसार (२०-२४ वय-अन्तराल में विद्यमान) लड़कियों में से ५२.२% अठारह वर्ष के अन्दर ब्याह डाली गयी थीं । ‘एन.एफ.एच.एस.-२’ में यह आँकड़ा ५०% का था । हाल के सर्वेक्षण ‘एन.एफ.एच.एस.-३’ (२००५-०६ ई.) में यह आँकड़ा ४४.५%(शहरी २८.१%,ग्रामीण ५२.५%) है । शैक्षिक स्तर पर देखा जाए तो इन में अशिक्षित रहीं ७१.६% लड़कियाँ १८ वर्ष के भीतर किये गये विवाह की शिकार हैं । इसी तरह ८ वर्ष से कम अवधि तक शिक्षित हुईं ५५.१% , ८-९ साल तक पढ़ीं ३५.८% तथा १० साल या अधिक अवधि तक शिक्षित १२.८% लड़कियाँ ऐसी हैं;जो १८ साल से कम उम्र में ही ब्याही गयी हैं । २५-२९ वर्षीय लड़कों में से २९.३% (शहरी १६.७%, ग्रामीण ३६.५%) २१ वर्ष के भीतर ही ब्याह में गये दिखे । स्पष्टतः,‘एन.एफ.एच.एस.-३’ के अनुसार कम से कम आधी लड़कियाँ अपने से अधिक उम्र के लड़कों से ब्याही गयीं । ( एक तो इस सर्वे में लड़की को १८ तथा लड़कों को २१ वर्ष तक विवाहित देखने की अनमेल सोच काम कर ही रही है ।) ‘यूनिसेफ’ ने १९८६-२००३ ई. के काल-खण्ड के अध्ययन से, २०-२४ वय-अन्तराल में आने वालीं उन लड़कियों का प्रतिशत में आँकड़ा पेश किया,जो १८ की उम्र तक ब्याह डाली गयी थीं— भारत-४६(शहरी २६,ग्रामीण ५४),पाकिस्तान-३२(शहरी २१,ग्रामीण १५),श्रीलंका-१४(शहरी १०,गामीण १५),नेपाल-५६(शहरी ३८,ग्रामीण ५९),बांग्ला देश ६५(शहरी ४८,ग्रामीण७०),चांड-७१(शहरी६५,ग्रामीण ७४),इण्डोनेशिया-२४(शहरी१४,ग्रामीण३५),द.अफ़्रिका-८(शहरी५,ग्रामीण१२),सेंट्रल अफ़्रिकन रिपब्लिक-५७(शहरी ५४,ग्रामीण ५९),मिस्र-२०(शहरी ११,ग्रामीण१४),माली-६५(शहरी-४६,ग्रामीण-७४),घाना-३६(शहरी २५,ग्रामीण ४२),मैक्सिको-२५(शहरी ३१,ग्रामीण२१),सूडान-२७(शहरी १९,ग्रामीण ३४),निगार-७७(शहरी ४६,ग्रामीण ८६),यमन-४८(शहरी ४१,ग्रामीण ५२) । बाल-विवाह से असमय गर्भ ढोने को मज़बूर बच्चियों का आँकड़ा यदि न देखें तो यह तस्वीर अधूरी रह जाती है । ‘विश्व बैंक’ की रिपोर्ट के अनुसार २००३ में १५-१९ वर्ष की २१% लड़कियाँ ‘माँ’ बनायी जा चुकी थीं । ‘एन.एफ.एच.एस.-३’ में यह आँकड़ा १६%(शहरी ८.७%,ग्रामीण १९) है,जो बिहार में २५%(ग्रामीण २७.६),उ.प्र.में१४.३%(ग्रामीण २७.६%),झारखण्ड में २७.५%(ग्रामीण ३२.७%) तथा उत्तरांचल में ६.२%(ग्रामीण ७.८%) है । बाल विवाह और ऊपर से तमाम स्त्री-विरोधी मान्यताओं और व्यवस्थाओं की शिकार बनीं,कुपोषित हुईं लड़कियाँ जब प्रसव की नौबत तक पहुँचती हैं,तो बड़ी संख्या में वे मौत की भेंट चढ़ जाती हैं । उन के बच्चे भी मृत या बेहद कमजोर पैदा होते हैं । यदि बच्ची जनम जाती है,तो बेटे के भूखे इस समाज द्वारा उस की और उस बच्चीनुमा माँ की उपेक्षा शुरु हो जाती है । इस से वह और कमजोर हो जाती है। वह खुद कुपोषित है,तो उस के पास दूध कहाँ से बनेगा ? दूध नहीं बना तो बच्ची को क्या पिलाएगी ? वैसे दूध होने पर भी बच्ची सन्तान को कम ही समय तक स्तनपान कराने की छूट उसे समाज देता है,साथ ही बेटे की चाह में कुछ ही महीनों में पुनः गर्भ-धारण का दबाव उस पर डालता है । ऐसी स्थिति में ०-४ वर्ष की बच्चियों की मौत-दर ऊँची होती है । ‘एन.एस.एस.-१९८७’ के अनुसार प्रति हज़ार जीवित प्रसव पर इस उम्र की ३६.८ बच्चियाँ और ३३.६ बालक मर जाते हैं । ‘एन.एफ.एच.एस.-२’ के अनुसार प्रति हज़ार जीवित प्रसव पर,०-५ वर्ष की उम्र के बीच में ही ९४.९ बच्चे मर जाते हैं,जिन में बच्चियाँ अधिक होती हैं । भारतीय बच्चियों में २५% अपना १५ वाँ जन्मदिन भी नहीं देख पाती हैं । इस तरह से प्रतिवर्ष लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ तीन लाख ज़्यादा मरती हैं । इस समूची क्रूर व्यवस्था के परिणामस्वरूप माँ बनीं वे कमसिन लड़कियाँ यदि बच पाती हैं,तो उन की कंचन-काया मुर्दा-खण्डहर में असमय तब्दील हुई दिखाई देती है । जिन में महादेवी वर्मा,इन्दिरा गाँधी,किरण बेदी,कल्पना चावला,बछेन्द्री पाल,सुधा मूर्ति,पी.टी.उषा,सानिया मिर्ज़ा,सायना नेहवाल या ना जाने किस-किस की संभावना थी,पर वे ही बच्चा दर बच्चा जनते-पालते बन जाती हैं केवल घरेलू-बीमार प्रजनन-मशीन । (‘राजकमल प्रकाशन समूह,दिल्ली’ से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक जनसंख्या-समस्या के स्त्री-पाठ के रास्ते…’ का अंश) ------------------- -------------------- --डॉ.रवीन्द्र कुमार पाठक व्याख्याता,जी.एल.ए.कॉलेज,मेदिनीनगर(डाल्टनगंज), झारखण्ड-८२२१०२. दूरभाष-०९८०१०९१६८२

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