जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

रविवार, 17 जुलाई 2011

झाँसी की रानी : अनकही कथा (१८३५-१८५८)

(१) मूढ़ पिता ने एक अधेड़ की सेज हेतु कुर्बान किया । 
छोड़ पढ़ाई - खेलकूद उस ने पतिगृह प्रस्थान किया ॥ 
उस निर्घृण मानव-समाज की मनु शोषित-दुखियारी थी । 
पिंजरे की अब बन कर मैना वह आफत की मारी थी ॥ 
मन में क्रीड़ा की उमंग, रानी का बोझ उठाना था । 
तेरह-वर्षीया को माँ बन जनता को अपनाना था ॥ 
‘देशभक्ति’ को आगे कर जीने का हक भी कुचल दिया 
उस बच्ची का; सोचो, था दुनिया का दिल कितना घटिया ॥ 
तन थक कर था चूर,त्रस्त मन, सबविध विफल जवानी थी। 
खूब सही थी मार वक्त की , जो झाँसी की रानी थी ॥
(२) चित्रा-अर्जुन, शिव-भवानी की उपमा देना ठीक नहीं । 
बाप बराबर वर से बच्ची का रिश्ता क्या रहा सही ? 
गर्भ-भार से लदी अल्प-वय में, पीड़ा वह भारी थी । 
शिशु से राजवंश अँकुरा, खुद छूँछी हो मनु हारी थी ॥ 
गुजरा समय -- वृद्ध राजा को यमपुर से न्यौता आया । 
विधवा के सादे लिबास ने घोंट-घोंट कर तड़पाया ॥ 
रूखी - सूखी दिनचर्या -- राजा का मान बचाना था । 
मन्त्री - कोष - प्रजा - सेना -- सब के ही साथ निभाना था ॥ 
‘जय’ मत बोलो, थोथी जय से क्या होता आराम यहाँ ? 
सपनों से भी वंचित, ‘रानी’ मज़बूरी का नाम यहाँ ॥ 
कल्पित सुख, पर ठोस वेदना से रिसती ज़िन्दगानी थी । 
खूब सही थी मार वक्त की , जो झाँसी की रानी थी ॥

धर्म स्त्री के लिए वेश्यालय है ?

‘धर्म’ को ले कर वैसे तो बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, आध्यात्मिक व्याख्या करते हुए, मानवीय समता व भौतिक सुख के क्षेत्र में भी उस की रचनात्मक भूमिका के बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं, पर अफसोस ! मानव-इतिहास का अधिकतर हिस्सा ऐसे धर्म की मौजूदगी से वंचित रहा है । धर्म का ऐसा चेहरा कभी भूले-भटके धर्म-सुधारकों द्वारा दिखाया भी गया, तो वह बिजली की कौन्ध जैसा ही क्षणिक रहा, जो हर बार अपने पीछे दुनिया में भयानक अन्धकार ही छोड़ कर गया है । इस के तहत, धर्म इन्सान का तथाकथित ईश्वर से सीधे सम्बन्ध का विषय न हो कर एक संस्थागत रूप में मौजूद रहा है , जिस के कारण खुदा और इन्सान के बीच कोई तीसरा (बिचौलिया/दलाल या ठेकेदार) ही बैठा रहा है, जो धर्म की सत्ता चलाता और अधिकतर लोगों के जन्मसिद्ध स्वतन्त्रता व समता के अधिकार को ही नहीं, कभी जीने तक के उन के अधिकार को भी बेरहमी से कुचलते रहा है । यह वैश्विक सच्चाई है, फिर भी खासकर स्त्री के सन्दर्भ में बहुत ज़्यादा सच है ।
आधी आबादी (स्त्री) के लिए तो दुनिया का हर धर्म बेहद क्रूर रहा है । वह मर्दों की खोज रहा है, जिस का खुदा भी अन्तत: मर्द ही है । धर्म का चरित्र पितृसत्तात्मक रहा है । यानी, उस के तहत (भले सभी पुरुषों के लिए न हो, पर) अन्तत: पुरुषों के स्वार्थ, सुख, कल्याण, मुक्ति के लिए ही सारा ताम-झाम है, जिस का साधन बना कर बाकी सब कुछ को लाया गया है । उन में अन्यतम साधन है स्त्री । स्त्री के समग्र व्यक्तित्व को देह-बद्ध कर, उसी पर सभ्यता-संस्कृति के सारे मानक लाद दिये गये -- वह देह पुरुष/पुरुष-सत्ता के मनोविनोद या आकांक्षा-तृप्ति व वंश-वृद्धि के लिए मुकर्रर की गयी । धर्म ही है जिस ने स्त्री की यौन-स्वतन्त्रता छीन कर उसे मर्द-विशेष की सेज की मुफ़्त की वेश्या बना डाला (विवाह-संस्था); साथ ही प्रत्यक्ष वेश्यावृत्ति का भी परोक्ष समर्थन करते रहा । वेश्यावृत्ति से भी गयी-बीती स्थिति बहुपत्नीवाद/बहुगोपिकाएँ, यानी एक ही मर्द के बाड़े में मुर्गियों की तरह बहुत सी स्त्रियों को कैद करने की सामन्ती परम्परा का धर्म ने निरन्तर अनुमोदन किया है । फिर, उसी ने दुनिया के हर देश, समाज व मज़हब के मठ-मन्दिरों की अन्धेरी कोठरियों में देवदासियों के अलग-अलग रूपों में, कमसिन लड़कियों को देवता की सेवा के नाम पर ठूँसा और इस रास्ते पुजारियों और समाज के प्रभावी लोगों (ज़मीन्दारों, मुखियाओं) की हवस की सड़ाँध झेलते रहने हेतु उन बेचारियों को मज़बूर किया । राहुल सांकृत्यायन ने बिल्कुल सही कहा है --
‘‘ यद्यपि धर्म वाले वेश्यालयों का विरोध करते हैं, तो भी उन का विरोध लीपापोती मात्र है । उन में से कितने ही तो पूजा-स्थानों में वेश्याओं का रखना जरूरी समझते हैं और कितनों के स्वर्ग वेश्याओं के बिना सजाए नहीं जा सकते । हूरों-अप्सराओं-देवदासियों की आवश्यकता मानने वाले भला कब वेश्याओं का उन्मूलन कर सकते हैं ? ’’ (--‘साम्यवाद ही क्यों’, १९३४ / पृष्ठ - ४८)
इतिहास में हम देखते हैं कि राजाओं, सामन्तों या धनियों के लिए, खाने-पीने की चीजों की भाँति उन की महफ़िलों या सेजों के लिए नर्तकियाँ / वेश्याएँ / रखैलें भी जरूरी रही हैं । उन की संख्या से राजा/ धनी की ताकत या सामर्थ्य की माप होती रही है । जो जितना बड़ा राजा/धनी, उस के पास उतनी ही बड़ी संख्या में आफ़त की मारी ऐसी स्त्रियाँ , जो उन के धर्म-सम्मत (बहु)विवाहों के अतिरिक्त रही हैं । उन की इस खुली लम्पटता का धर्म की तरफ से सीधे या अनदेखी-रूपी परोक्ष समर्थन रहा है । धर्म धनियों के हाथ का खिलौना रहा है । आज भी शंकराचार्य, पीर आदि के राजसी ठाट-बाट या चोरी-छिपे उन के द्वारा कमसिन स्त्रियों के भोग का इन्तजाम कहाँ से होता है ? उन के आश्रम अवैध कमाई और यौन-शोषित स्त्रियो के अड्डे होते हैं । यह तो आज की बात है, जब धर्म हमारे व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन में बहुत ज़्यादा प्रभावी नहीं रह गया है, क्योंकि हमारे लिए लोकतन्त्र, राजव्यवस्था/सरकार, विज्ञान-सम्मत सेक्यूलर(इहलौकिक) दृष्टि आदि नये नियामक भी हो चुके हैं । यदि धर्म सामाजिक जीवन में फिर से मध्यकाल जितना ही प्रभावी हुआ, तो पुराने ऋषि-मुनियों की परम्परा में फिर से दढ़ियल-कामकुण्ठित-खतरनाक साधु चाहे जिस घर में घुस के लड़कियों/स्त्रियों का यौन-दलन कर के उन्हें गर्भवती बनाने लगेंगे, फिर उस से पैदा नाजायज औलादों को सूर्य, वरुण, इन्द्र, पवन नामक तथाकथित देवताओं के आशीर्वाद बता कर अपने कुकर्मों को ढँकते रहेंगे । कमोबेश आज भी तो वे ऐसा कर ही रहे हैं ।
धर्म ने स्त्री के लिए पातिव्रत्य/सतीत्व यानी पुरुष-विशेष की एकनिष्ठ यौन-दासता का विधान कर उस के लिए फ़्री-सेक्स-सेवा देने की बाध्यता पैदा कर तथाकथित वेश्यावृत्ति के भी कान काट दिये । पति की हर इच्छा, सनक की हद तक बढ़ी उस की हर प्रकार की हवस को पूरी करने हेतु उस के द्वारा स्त्री को प्रेरित किया जाता रहा है । इस्लाम आदि धर्मों में पति के दूसरे-तीसरे-चौथे विवाह को (यानी रोज नयी-नयी सौतों को ) सहर्ष सहते जाने का दबाव ने स्त्री पर डाले रखा है -- उसे स्वर्ग (जन्नत) के प्रलोभन और नरक(दोजख) की आग का डर दिखा कर । पति की वासना-विक्षिप्तता पर उसे कोसने या दण्डित करने की जगह धर्म ने उस की चाह पर पत्नी द्वारा उसे वेश्यागृह तक पहुँचाने तक को सराहा । ऐसी कहानियाँ धार्मिक ग्रन्थों ( पुराणों) में पातिव्रत्य की पराकाष्ठा के रूप में परोसी गयी हैं । स्त्री के यौनांगों और उस के यौन-व्यवहारों पर ही धर्माचार्यों (जो प्राय: पुरुष होते हैं) की आँखें गड़ी रहती हैं और उसी को ले कर वे स्त्री-सम्बन्धी अपने व्यवहार, मन्दिर-मठ-मस्ज़िद-गिरजों के विधि-निषेध / कानून तय करते रहे हैं । वे अपनी जन्मभूमि यानी औरत को ‘मासिक धर्म के कुण्ड’ या ‘योनि’ के सिवा किसी अन्य रूप में पहचानने में असमर्थ हैं, तभी तो इस आधुनिक युग में भी बनने वाले मन्दिरों या धर्मस्थलों के प्रवेश-द्वार पर यह फ़रमान अक्सर लिखा मिल जाता है कि स्त्री इस में पूरी टाँगे ढँकने वाले कपड़े पहन कर ही घुसे या जीन्स आदि कसे कपड़े पहन कर न आये । पर, मज़ा यह है कि वे स्त्री को विशेष इज़्ज़त देने या नारी-पूजा करने की भी बातें कर लेते हैं । यह कौन सा सम्मान है, जो स्त्री को कपड़े पहनने तक की आज़ादी नहीं देता ? वे उसे देवी मानते हैं, पर उन में इतनी तमीज नहीं कि किसी तरह उसे इन्सान मानने को तैयार हो जाएँ । सच तो यह है कि माँ (यानी प्रजनन-मशीन) की महिमा में स्त्री को फुला कर, उस की चेतना को विमूर्च्छित कर, ये धर्म के ठेकेदार धीरे से उस की देह पर हाथ रख देते हैं ।
धर्म ने ही स्त्री को पुरुष की रात की सेज का साथी भर बनाए रखा और दिन में उस की सहकर्मिणी - समान व्यक्तित्वशाली -- हर क्षेत्र में कदम-ताल मिला कर उस के साथ चलने लायक बन ने में बराबर रोड़े अँटकाये हैं । घर व विवाह के पिंजरे में कैद कर, पातिव्रत्य की जंज़ीरों से स्त्री को कस कर उस की श्रमशक्ति, यौनशक्ति व जननशक्ति सब को पुरुष की गिरफ़्त में डाल दिया । साथ ही, उसे दान (कन्यादान) , भेंट और जुए में दाँव तक पर लगाने की वस्तु भी बना दिया । धर्म द्वारा प्रतिपादित आदर्श स्त्री वह है, जो पिता-भाई-पति-पुत्र आदि पुरुषों के हर सुख के वास्ते दिन-रात बैल की तरह खटती रहे और उन के आगे लतखोर बन कर रहे । खासकर अपने पर थोपे गये पति नामक मर्द-विशेष के आगे । उस के थूक-खखार-आँव सब कुछ पीए और मुँह न खोले, कभी कुछ न चाहे । माँ या पत्नी मात्र की भूमिकाओं में स्त्री को सीमित कर धर्म ने उस के परजीवी व गरीब होने का रास्ता चौड़ा किया है, फलत: उस के वेश्या बनने की मज़बूरी भी पैदा होती रही है । चाहे वह कानून-सम्मत (वैवाहिक) वेश्यावृत्ति हो या प्रत्यक्ष वेश्यावृत्ति -- दोनो में उस के लिए रोजी की कोई सम्मानजनक व्यवस्था नहीं है । दोनो जगहों पर पेट के एवज़ में उस की देह ही दाँव पर लगी हुई है । धर्म द्वारा जिस यौन-नैतिकता में स्त्री जकड़ी गयी, उस का अगला परिणाम यही हो सकता था कि पति द्वारा ठुकराई गयी कोई स्त्री , यदि वह जीना चाहे तो उस के लिए अन्तिम शरणस्थली मठ (की धार्मिक वेश्यावृत्ति) या चकला ही रह जाता है । यह ठीक है कि हू-ब-हू ऐसी स्थिति अब नहीं रह गयी है, पर साथ ही यह भी तो देखिये कि वैसा तभी हुआ है, जब हम ने ऐसे धर्म से किसी हद तक तौबा किया है । कोई कहेगा कि ये सब किसी धर्म ने नहीं, समाज-व्यवस्था ने किया है, पर उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि वैसी समाज-व्यवस्था को सम्भव बनाने में धर्म ने कितनी बड़ी भूमिका निभायी है । कुछ नहीं तो, उसे धर्म का अथाह समर्थन तो प्राप्त रहा ही है ।
अब ऐसी स्थिति में आप ही बताइये कि जिस धर्म या धार्मिक परम्परा के सम्मोहन में हम पड़े रहे हैं, वह क्या पवित्र है ? कुछ लोग कहेंगे कि नहीं, धर्म अफ़ीम है । होगा अफ़ीम पुरुषों के लिए, स्त्रियों के लिए तो धर्म वेश्यालय है, वेश्यालय । अब इस में कोई शक नहीं रह जाता कि ऐसे धर्म के ऑक्टोपसी जाल से स्त्री जितना ही मुक्त होगी, उतनी ही मात्रा में अपने कुचले गये मानवाधिकार को प्राप्त कर सकेगी, उतना ही वह इन्सान बन कर उभर सकेगी । --------------------------------------------------

स्वार्थ (कविता)

पुरुषत्व-मोह में अन्धे
या, मर्दानगी के मद से फुफकारते -
पति के कुलनाम की बैसाखी
या उस के वास्तविक (समूचे)
नाम का पूरा-पूरा लिहाफ ही
चाहिए जिसे,
उस बेपहचान-गुमनाम
औरत की दुनिया में
पुरुषों की व्यक्तिगत सफलता या विजय के निनाद
सुनते-सुनते पक गये हैं मेरे कान ।

मुझे सुनाई देता है उन मे
मूक व नासमझ कराह - अवसाद
उन बच्चियों का --
जिन के बॉल-पतंगें, किताब या दूध तक छीन कर
सर्वस्व निछावर किये गये उन के नाकारा-आवारा भाइयों पर ।
ठोंकी गयी उन की पीठ बराबर --
ऋषि-युग से कालिदास, कबीर-तुलसी के युग तक,
प्रसाद-धूमिल से तसलीमा के इस समय तक ।

इतनी बार लगातार जोर-जोर से ठोंकी गयी वह
कि आये दिन
उन में से कोई-न-कोई
बज ही जाता है लाल किला या स्टॉक-एक्सचेंज पर,
चढ़ ही जाता है एवरेस्ट या चाँद पर ।
अन्यथा वे भाई
अण्डरवर्ल्ड के ‘भाई लोग ’ तो बन जाते हैं
सहज ही --
जहाँ उन की बहनों की साँस तक पर पहरे बिठाए गये हों
और उन भाइयों की उद्दण्ड चाहों
की सवारी के लिए ‘बाइक’ दे दिये जाएँ बिन माँगे ही ।

ऐसे समय में
जब सामूहिकता पुंलिंग हुई बैठी है,
किसी समूह-हित में भी
तप गयी, खप गयी या गुम हो गयी
किसी स्त्री का चेहरा धुँधला-सा
कैसे सूरज बन कर उग सकता है
मेरे मन के दिशाकाश में ?
किसी रत्नावली, जीजाबाई, लक्ष्मीबाई
या राखी लिए कलाई खोजती
किसी लड़की को ही देख कर
कैसे जुड़ सकते हैं ये नयन ?

जब औरत की व्यक्तिगत ‘जय’ की बात तो दूर,
उस की ऐसी जयाकांक्षा तक सुनने को
तरस गये हैं मेरे पाँच हज़ार साल पुराने कान ;
रसोईघर की ‘खद-बद’ या बिस्तर की ‘सी-सी’
में जब सुनता हूँ उस का ‘दॅ एण्ड’
तब, सामूहिक / ग्लोबल हो चुके इस समय में
यदि दिखता है कोई पुरुष
‘इन्सान’ होने के लिए ग़ुम हो रहा
या मानव-मुक्ति की बड़ी लड़ाई में विजयी हो रहा,
तो कितना सोना लगता है !
परन्तु , उस से भी अधिक सोना लगता है
किसी लड़की का हॉकी खेलना, गाना,
पढ़ना या तन कर चलना ही शर्म-मुक्त
अथवा पार्क में टहलना
या पसरी रहना ही ।
कितनी सोनी लगती है वह !
जो ‘बाप’ के लिए नोट छापने की मशीन बनने को तैयार, कैरियरनिष्ठ,
विवाह-बाज़ार के बिकाऊ पट्ठों की कतार से
एकदम अलग --
गा रही है, खिलखिला रही है,
चौके-छक्के जमा रही है
अथवा सी.बी.एस.ई.परीक्षा में हर साल अव्वल आ रही है,
(शायद) केवल अपने लिए ।
०००००००००००००००००००००

रविवार, 24 अप्रैल 2011

संस्कृति की बेटावादी संरचना का प्रभुत्व : स्त्री का घुटता और घटता अस्तित्व


युग-युग से चली आ रही, समाज की यह विषम संरचना है जिस के कारण स्त्री को पुरुष की तुलना में हर स्तर पर उपेक्षा, वंचना व उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है । उस की पीड़ा और अभावग्रस्तता की यह करुण कहानी बढते-बढ़ते आज अपने चरम रूप ‘नारियों के अभाव’ को प्राप्त हो चली है -- यह दिल दहलाने वाला तथ्य है , जिस पर आमतौर पर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है । पोषण , स्वास्थ्य-सुविधा आदि में भेदभाव के चलते स्त्री की अस्वाभाविक मरणशीलता तो रही ही है; परन्तु क्रूर सच्चाई यह है कि बेटे की चाहत में नवजात कन्या को मौत के घाट उतारने के ढेर सारे तरीके अतीत के धुँधलके से वर्तमान के रोशन इलाकों तक में प्रचलित रहे हैं । लिंग-परीक्षण की तकनीक की खोज ने तो ‘कन्या-वध’ की इस कुत्सित परम्परा में आज भीषण उछाल ला दिया है । बेटे पैदा करने के चौतरफा दबाव ने स्त्री को अपनी अजन्मी बच्ची की हत्यारिन तथा उस की कोख को कसाईघर बना डाला है। । देश की आबादी में ०-६ वर्षीय पुरुष-स्त्री-अनुपात, यानी लिंगानुपात पिछले ७० सालों में ९६ अंक नीचे गिर कर २०११ ई। में ९१४ हो चुका है । स्त्री की लगातार घटती संख्या का जिम्मेदार है--जनमानस में भयंकर रूप से बैठा पुत्र-मोह / पुत्री-द्रोह , जिसका धारक है पितृसत्तात्मक सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक ढाँचा तथा मर्द-केन्द्रित अर्थव्यवस्था । इस से बड़ी विसंगति और क्या हो सकती है कि सदियों से चल रहे इस हत्या-काण्ड को रोकने का प्रयास होता है या उस पर कोई चर्चा भी होती है, तो इसलिए कि समाज के ठेकेदारों को मर्दों के लिए बीवियों का अकाल दिखाई देने लगा है, जिस से एक ही पत्नी में भाई लोगों को शेयर तक करना पड़ रहा है । इसलिए नहीं कि लड़की को भी जीने का उतना ही हक़ है जितना लड़के को। ‘लिंग-परीक्षण’ रोकने के लिए बना कानून(२००२ई.) तो लगभग बेअसर है, जो करोड़ों में इक्का-दुक्का को ही सज़ा दे पाया है । स्त्री यदि इसी तरह अनचाही व घटती प्रजाति बनी रही, तो मर्दवादी समाज में उस की स्थिति मुर्गियों से भी बदतर हो जाएगी -- वह खुलेआम वीभत्स नोंच-खसोट की चीज बन जाएगी । तब, कहाँ होंगे हमारी लोकतांत्रिक संरचना या समता के दावे अथवा आज ही वे हैं कहाँ ?

--- रवीन्द्र कुमार पाठक
व्याख्याता,जी.एल.ए.कॉलेज,मेदिनीनगर(डाल्टनगंज),झारखण्ड-८२२१०२

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री को श्रद्धांजलि देते हुए...

कुपथ-कुपथ रथ दौड़ाता जो पथ-निर्देशक वह है, लाज लजाती जिस की कृति से धृति-उपदेशक वह है ।


मूर्त्त दम्भ गढ़ने उठता है शील-विनय परिभाषा,






मरण-रक्त मुख से देता जन को जीवन की आशा ।






जनता धरती पर बैठी है, नभ में मंच खड़ा है,






जो जितना है दूर मही से उतना वही बड़ा है ।






....................






ऊपर-ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं,






कहते ‘ऐसे ही जीते हैं’ जो जीने वाले हैं ।






कलरव करने वाले पंछी, पत्तों वाली डाली,






उन्हें कहाँ ठण्डक मिलती है, इन्हें कहाँ हरियाली ?



(‘मेघगीत’ से)






इन धारदार पंक्तियों के रचनाकार आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री अब हमारे बीच नहीं रहे, यह खबर मेरे अन्तर के एक कोने को कुछ अजीब सी रिक्तता का अहसास करा रही है ।






आचार्य जी कई दशकों से मौनभाव से सक्रिय थे तथा ९५ साल की भरी-पूरी साहित्यिक/इन्सानी ज़िन्दगी जी कर, बहुत कुछ दे कर, हमें छोड़ कर चुपचाप चले गये । मुझे जो कुछ मालूम है, उस के अनुसार वे समाज के अभावग्रस्त-निम्नवर्ग के प्रति सदैव सक्रिय-सहानुभूतिशील रहे । पशु-पंछियों के प्रति बेहद लगाव रखते हुए एक तरह से उन्हीं से अपना घर बसाए रखा । ये बातें महादेवी वर्मा से उन्हें जोड़ती हैं । उन का जाना (हिन्दी-) साहित्य-संसार की एक समृद्ध व दीर्घकालव्यापी परम्परा के साथ एक युग का भी अन्त है । वे कवि के रूप में अधिक ख्यात रहे, पर वे उस से काफी अधिक थे । उन के कवि-रूप पर विचार करें , तो वे छायावाद की आखिरी कड़ी थे, जो उत्तरछायावाद के प्रवर्तक भी कहे जाते हैं । उन्हों ने हिन्दी ही नहीं, संस्कृत के भी गीतिकाव्य को नवस्पन्दन प्रदान किया । यह दुर्लभ घटना है । शुरुआती दौर में, संस्कृत-गीतिकाव्य ‘काकली’ ने उन की अलग पहचान बनायी थी । वे निराला को अपना साहित्यिक आराध्य मानते थे तथा उन के व्यक्तित्व व सर्जना से निरन्तर अनुप्राणित होते रहे । ( विदित हो कि अपने मुज़फ़्फ़रपुर के घर को उन्हों ने ‘निराला-निकेतन’ नाम दे रखा था । ) अपने साहित्यिक आराध्य की तरह ही उन में संवेदना और किसी सीमा तक भाषा का भी वैविध्य रहा है । ( एक उदाहरण देने की इच्छा है - एक तरफ वे संस्कृतनिष्ठ सर्जना के धनी रहे, तो दूसरी तरफ ऐसे ठेठ प्रयोग भी करते थे -- ‘‘वह है सुकनी और सनीचरी, एतवरिया-सोमरिया । भीड़ लगाए खड़ी हुई मेहरारू करिया-करिया’’ ) साथ ही, विधागत विविधता की दृष्टि से भी उन का शब्द-संसार काफी समृद्ध रहा है । काव्य(महाकाव्य,गीतिकाव्य,गीत-ग़ज़ल), गीतिनाट्य, नाटक, आलोचना, निबन्ध, कहानी, उपन्यास, संस्मरण-आत्मकथा, पत्रिका-सम्पादन आदि से वह भरा पड़ा है । पर, जो बात असाधारण है, हिन्दी-रचनाशीलता/लेखन में जिस की आज बड़ी तेजी से कमी होती जा रही है तथा जिस के लिए उन का वास्तविक अभाव महसूस किया जाना चाहिए, वह है परम्परा का उन का गहरा बोध तथा उस के समकालीन पुन:सर्जन की क्षमता । यह बात मैं उन के ‘कालिदास’ नामक उपन्यास के अपने पठनानुभव के आधार पर कह सकता हूँ ।






उक्त कृति एक रचनाकार द्वारा भारत के एक क्लैसिकल रचनाकार को (उस के जीवन-दर्शन व साहित्य-दर्शन को ) समझने की शानदार कोशिश है, जिस की रचना-प्रक्रिया में उन के विलक्षण परिश्रम, सदसत्-विवेक व भव्य-अपूर्व कल्पना के साथ, लोकहितकारी व्यापक सौन्दर्य-दृष्टि का मणि-कांचन संयोग झलकता है । उन के द्वारा, कालिदास को फटेहाल-अभावग्रस्त, कथित निम्नजातीय समूह के दु:ख-दर्द से भी इन्सानी जीवन व कविता के लिए संवेदनाएँ ग्रहण करते दिखाना अपने आप में असमानान्तर-उदात्त कल्पना है । यह उपन्यास अभिज्ञानशाकुन्तलम्-मेघदूत-ऋतुसंहार-रघुवंश-कुमारसम्भव के बोध के ज़रिये हमारे भीतर धुँधले-से आकारवान् कवि कालिदास को ज़मीनी स्पष्टता प्रदान करता है । यहाँ ज़मीन से दुहरा आशय है --: (१) कालिदास के बहु-आभासित रोमैण्टिक व्यक्तित्व को लोक-जीवन का संस्पर्श देने का उपयोगी कार्य शास्त्री जी ने किया है । (२) जिस कालिदास का व्यक्तित्व किंवदन्तियों-दन्तकथाओं के घटाटोप में, साहित्यालोचकों-बौद्धिकों के बीच आज तक काल व देश के पेण्डुलम पर झूलते रहा है, उसे एक विश्वसनीय कथाभूमि पर देशकाल की पूरी प्रामाणिकता के साथ पुनराविष्कृत करने का दु:साध्य-साधन शास्त्री जी ने अपने जीवन के आठवें दशक में कर के हमें विस्मित किया है । पर, कैसी विडम्बना है कि इस मूल्यवान् व सुफल प्रयास की हिन्दी/संस्कृत-आलोचना ने कोई नोटिस तक न ली । इसी तरह, उन के महाकाव्यात्मक गीत-काव्य ‘राधा’ (७ खण्ड) की भी चर्चा न हुई, जिस ने इस जल्दबाज -क्षणजीवी समकाल में महाकाव्यात्मक औदात्य को इत्मीनान से सिरजा । इस के ज़रिये उन्हों ने जयदेव व सूरदास की परम्परा को पुनर्जीवित किया है, नवाकार भी दिया है । पर, कितना व किस रूप में ? -- यह आकलन करना अभी शेष है । कुल मिला कर, उन के जीवन व सृजनलोक में कई कीमती असाधारणताएँ रही हैं, जिन का उचित मूल्यांकन क्या, अवलोकन तक नहीं हुआ है।






शास्त्री जी वर्षों से हमारे बीच कुछ इस तरह थे कि उन का होना न होने के बराबर रह गया था, पर इस के पीछे उन की सर्जनात्मक मन्दता (जो उम्र-जनित थी) को उतना बड़ा कारण नहीं कहा जा सकता, जितना उन के प्रति हमारे उपेक्षा-भाव को । यह भाव निश्चित रूप से हमारी मीडिया-उन्मुख वर्तमान हवाई बोध(ग्रहणशीलता) की देन है, जो एक पीच पर कुछ लोगों की भागदौड़ (मैच) या किसी चमकीली/भड़कीली शादी को ब्रह्माण्डव्यापी समकालीन सच के रूप में बेशर्मी से महसूस करता-कराता है, पर बगल में हो रही लाखों जनों की भुखमरी, करोड़ों बच्चियों की गर्भ में ही हो रही हत्या/दहेज-हत्या या ओजोन-परत तक में छेद होने को बदतमीजी से नज़र-अन्दाज करता-कराता है । खैर ! शास्त्री जी की उपेक्षा का एक कारण हमारी बौद्धिकता अवश्य खोज लेगी -- समकालीन या किसी बड़ी प्रगतिशील या लोकप्रिय हलचल में उन का शरीक न होना ! पता नहीं, यह कितना सच है । पर, उन को अनदेखा करते जाने का यही एक कारण नहीं है, हम सब जानते हैं । आखिर आसाराम,मोरारी बापू,साईंबाबा अथवा हमारे नेता ही कौन सी प्रगतिशीलता पेश कर रहे हैं ? बात घूम-फिर कर सत्ता पर आती है, वह चाहे राजसत्ता हो, धर्मसत्ता या अर्थसत्ता ! उस से बिना सम्पृक्त हुए आप कुछ भी नहीं हैं । यह केवल जानकीवल्लभ शास्त्री का नहीं, बहुतेरे सरस्वती-साधकों या जन-सेवकों का सच है ।






जो हो, शास्त्री जी चिर-उपेक्षित रचनाकार रहे हैं । रचना के अनुपात में उन का बहुत कम मोल आँका गया है । कम से कम ‘कालिदास’ के लिए वे ज्ञानपीठ पुरस्कार से कम के हक़दार नहीं थे । पर, वह उन्हें मिलने वाला न था, यह बात हम रवीन्द्र कालिया(ओं) के आज के (अ)ज्ञानपीठ /ठों के ज़रिये नहीं, बल्कि पहले के (अ)ज्ञानपीठ /ठों को देख कर भी भली-भाँति समझ सकते हैं । जहाँ तक मुझे पता है, साहित्यिक अवदान के लिए अन्तिम बार वे तब चर्चा में आये थे, जब उत्तरप्रदेश सरकार का ‘भारत-भारती सम्मान’ (२००१) उन्हें मिला था । किसी गुणग्राही की नज़र पड़ गयी होगी । वैसे पुरस्कार/सम्मान के लिए हाय-तौबा मचाने वालों में वे बिल्कुल न थे । अन्यथा, भारत-सरकार द्वारा १९९४ व २०१० में प्रदान किये जा रहे ‘पद्मश्री’ को अस्वीकार न करते । अपनी उपेक्षा को ले कर भी उन्हें किसी से शिकायत न थी, बल्कि स्वयं को प्राप्त सम्मानों को ले कर वे संतुष्ट थे, जैसा कि ‘कालिदास’ की भूमिका में उन्हों ने स्वीकारा है ।






अफ़सोस है कि शास्त्री जी को मैं ने बहुत ज़्यादा नहीं पढ़ा है । मेरा उन से पहला परिचय ‘मेघगीत’ की उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से हुआ था और उन की तमाम रचनात्मक उपलब्धियों के बावजूद मैं उन्हें इन्हीं पंक्तियों के सर्जक के रूप में याद करते हुए श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ । आमजन के हित के प्रति निरपेक्ष ही नहीं, बल्कि उस की हत्या करने वाली -- देश की मौजूदा राजनैतिक-संवैधानिक-प्रशासनिक-न्यायिक विसंगतियों/पाखण्डों पर ये मार्मिक टिप्पणी हैं । विनायक सेन जैसे असली भारत-रत्नों को जेल देने वाली व्यवस्था और सचिन जैसों को भारत-रत्न देने के लिए पगलायी अन्धी भीड़ जब तक हमारे देश का राष्ट्रीय चरित्र रहेंगी, ये पंक्तियाँ अर्थवान् रहेंगी । पर, ये पंक्तियाँ मुकाम नहीं, एक शुरुआत हैं, ये तब जा कर पूरी/कृतार्थ होंगी जब सामाजिक स्वतन्त्रता के अहम सवाल को भी ये दिशा देने लग जाएँ, उन में भी सब से अहम स्त्री-मुक्ति के प्रश्न, उसे जन्म लेने तक के अधिकार से वंचित किये जाने के प्रश्न को ।






आचार्य जी का निधन एक साथ कई सवाल छोड़ गया है । इस के कारण मै अपने हृदय के एक खाली हुए कोने तक फिर से आता हूँ -- उस के लिए मुझे तर्क से अधिक संवेदना की जरूरत है । यद्यपि मैं ईश्वरवादी नहीं हूँ, मुझे ईश्वर की जरूरत भी नहीं है ,पर उपमान के लिए मुझे उसे कष्ट देना पड़ रहा है । शास्त्री जी ने कहीं, किसी आलोचना में लिखा था -- दुनिया का सब से पहला नास्तिक वही होगा, जिस ने ईश्वर को तर्क से सिद्ध करने की कोशिश की होगी । उसी का स्मरण करते हुए मैं उन्हें विनत संवेदनांजलि अर्पित करता हूँ और लम्बे समय से एक तरह से उन्हें भूले रहने के अपने अपराध के लिए उन की स्मृति से क्षमा-याचना करता हूँ !






-- रवीन्द्र






दूरभाष - ९८०१०९१६८२ ई-मेल : rkpathakaubr@gmail.com

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

जरूरत है कन्याओं की हत्या के विरुद्ध खड़े एक अन्ना की !

भ्रष्टाचार के समूल नाश के उद्देश्य से, जिन तर्कों और तेवरों के साथ अन्ना हजारे आमरण अनशन पर डटे हुए हैं, वह स्तुत्य और रोमांचकारी है । उन्हें नयी लड़ाई का गाँधी कहा जा रहा है । इस की सच्चाई में किसी को कोई सन्देह नहीं हो सकता । उन का अभियान सफल हो -- यह शुभकामना भर व्यक्त कर देना काफी नहीं है, बल्कि पूरी कृतज्ञता से अधिकाधिक संख्या में हमें उन के साथ उठ खड़ा होना चाहिए, क्योंकि इतनी अवस्था के हो कर भी, वे हमारे लिए ही यह कष्ट उठा रहे हैं । किन्तु, प्रसंग ऐसा आ पड़ा है कि अक्सर सोचने लगता हूँ -- काश ! कुछ अन्य दाहक सवालों पर भी ऐसे ही कुछ अन्ना और होते ! भ्रष्टाचार का आम तात्पर्य जो लगाया जाता है, वह बड़ा संकुचित है -- आर्थिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार मात्र । पर, इस से भी व्यापक व गहरा है सामाजिक भ्रष्टाचार, विशेषकर स्त्रियों व दलितों के साथ हो रहीं अमानुषिक यातनाऎँ । आमतौर पर आर्थिक व राजनैतिक अपराध पर चर्चा/बहस के शोर में सामाजिक व मानवीय अत्याचारों की चीख हम नहीं सुन पाते । उन से जुड़े अपराधों पर हमारी निगाह नहीं जा पाती,या कम जाती है अथवा जा कर भी ठहरती नहीं । किसी भी तर्कनिष्ठ व संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह तय करना मुश्किल नहीं होगा कि धन की हेराफेरी(घोटाले) या संसद पर हमला करने आदि से भी बड़े अपराध हैं निठारी-काण्ड, अनुसूचित जातियों की बस्तियाँ जलाना, गोधरा आदि के दंगे, लड़कियों/स्त्रियों का बलात्कार/हत्या, उनकी ट्रैफिकिंग या उन्हें बजबजाती देहमण्डी में धकेल देना तथा और भी बहुत कुछ जो उन के साथ हो रहा है, वह ! इसी सन्दर्भ में आम्बेडकर ने कहा होगा - ‘‘ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।’’ ये स्थितियाँ निरन्तर बनी हुई हैं, लेकिन इन पर प्राय: वैसा उबाल नहीं आता, जैसा अभी अन्ना के इर्द-गिर्द दिखाई दे रहा है । सप्ताह भर पहले प्रकाशित 2011 की जनगणना की प्रारंभिक रिपोर्ट ने यह बेहद दिल-दहलाऊ तथ्य उजागर किया है :- राष्ट्रीय स्तर पर 0-6 वर्षीय लिगानुपात 13 अंक गिर कर 914 हो गया है-- यानी, पिछले 10 सालों में कन्याओं की हत्या करने में देश और शातिराना तरक्की पर आ गया है । पर, अफसोस कि अब तक इस दर्दनाक और शर्मनाक स्थिति पर कोई राष्ट्रीय क्या, प्रान्तीय या स्थानीय स्तर पर भी चर्चा नहीं हुई । इस के लिए, जिस दिन/सप्ताह को हमें राष्ट्रीय शोक मनाना चाहिए था, उस समय अपने आकाओं के साथ हम विश्वक्रिकेट में जारी भारतीय बढ़त/जीत के बेशर्म उन्माद से ग्रस्त रहे । हमारी सरकार और सम्पूर्ण मीडिया ने घरफूँक मस्ती में आपादमस्तक खुद डूब कर, एक बड़े प्रचार-अभियान के द्वारा हमें भी डुबाए रखा । वह बुखार हम पर से अब भी शायद नहीं उतरा है । एक छोटे से जमीन-खंड (पीच) पर देश के कुछ लोगों की भागदौड़ व ठकठक का कौशल हमारे लिए आधी आबादी ( के व्यक्तित्व-प्राप्ति के सवाल से बढ़ कर, उस ) को अस्तित्व /प्राण-धारण करने तक से वंचित किये जाने के सवाल से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण जब हो जाए, तब कितनी घृणित-कारुणिक हो जाती है हमारी बेहोशी ! अपनी इन्सानियत का कबाड़ा निकाल दिया है हम सब ने ! स्त्री के प्रति भेदभाव और उसे अभाव-ग्रस्त रखने का चरम रूप -- ‘स्त्री का अभाव’ पैदा करते ; उसे विलुप्तप्राय प्रजाति में बदलते ! दोस्तो ! बहनो ! भाइयो ! अब शोक मनाने का समय नहीं है ! इस पर विचार-विमर्श मात्र करने का भी यह समय नहीं है, बल्कि अब कुछ करने का समय है ! ( विचार-विमर्श भी इस देश से कैसा सम्भव है ? इसी तरह का न, कि लड़कियाँ इसी तरह घटती गयीं तो मर्दों को बीवियाँ कहाँ से मिलेंगी ? )

यह समय, इस सवाल पर कई-एक अन्ना या उन के चारो ओर उमड़ रहे लोगों में से से एक-एक आन्दोलित व्यक्ति बनने का है । क्या उम्मीद की जाए कि पुत्र-मोह की सड़ाँध के आदी इस समाज द्वारा चलाये जा रहे कन्याओं के (जन्मपूर्व / जन्म-बाद के) हत्याभियान को रोकने हेतु कोई बड़ा आन्दोलन होगा ? बड़ा न सही, व्यक्तिगत स्तर पर शारीरिक, वाचिक या कम से कम मानसिक सक्रियता ही हम में दिखाई देगी ? क्या इतनी तमीज भी हम(नर-नारियों) में नहीं आएगी ?


(चलते-चलते एक मासूम सवाल और ! महिला-आरक्षण-बिल को पास कराने हेतु इसी तरह कोई अन्ना/अन्नी हम में से निकल कर जन्तर-मन्तर या लालकिले पर कभी दिखाई देगा / देगी ? )

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

शर्म करें और राष्ट्रीय शोक-दिवस मनाएँ

2011 की जनगणना की अभी-अभी प्रकाशित प्रारम्भिक रिपोर्ट ने हमारे स्त्री-पूजक, आत्मवादी व विश्वगुरु (?) देश का घिनौना चेहरा बेनकाब किया है , जो इन 10 सालों में कन्या-वध की ओर और भयंकर रूप से अग्रसर हुआ है । दिल दहला देने वाला तथ्य यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर 0-6 वर्ष के आयु-वर्ग में प्रति 1000 लड़कों पर आज केवल 914 लड़कियाँ बच रही हैं । दस साल पहले (2001) यह संख्या 927 थी, जो 1991 के आकलन (945) से 18 गिर कर हुई थी । यानी, पिछले 20 सालों में 31 की खतरनाक गिरावट ! ये वे बीस साल हैं, जिन में स्त्री-सशक्तीकरण व बालिका-उत्थान के ढेर सारे नारों व कार्यक्रमों का शोर सुनाई पड़ा है, पर नतीजा सामने है । स्पष्ट है कि तमाम सरकारी कार्यक्रम बेटावादी ज़हर से भरी और लड़कियों के हत्याभियान में लगी सामाजिक संरचना को बदलने में बिल्कुल नाकाम रहे हैं । इस विकराल सामाजिक , पारिस्थितिकीय व मानवीय समस्या पर सोचना या संवेदित होना तो जैसे कुछ पेशेवर बुद्धिजीवियों भर का कर्त्तव्य रह गया है ( वह भी अक्सर इस चिन्ता/सोच से प्रेरित हो कर कि मर्दों के लिए कहीं बीवियों का अकाल न हो जाए! (1) वह भी बौद्धिक अय्याशी अधिक ! ) बाकी लोगों को क्रिकेट-विश्वकप में भारतीय विजय के एनेस्थिसिया और सचिन तेन्दुलकर को भारत रत्न बनाने , अभिषेक-ऐश्वर्या जैसी भड़कीली शादियों में खोने , सलमान की मूँछों (दबंग) में उलझे रहने, नज़र-सुरक्षा कवच खरीदने व धार्मिक ठेलमठेल में शरीक होने आदि से फुरसत मिले तब न ! लगता है, नशीली बेशर्मी को ही हम ने अपना राष्ट्रधर्म बना लिया है । दोस्तो ! बहनो! भाइयो! यह वक्त एक नकली युद्ध (मैच) में भारत को विश्व-विजेता बनाने के लिए व्रत रखने या सपनों में खोने का नहीं, बल्कि कन्याओं को मिटाने में खुद लगे रहने या हत्या/हत्यारों के प्रति कम से कम तटस्थ या सहिष्णु बने रहने या ऐसे दाहक सवालों से मुँह मोड़ कर जीने के लिए शर्म करने का है । साथ ही, यह वक्त लिंग-भेद के इस परिदृश्य पर विचार करने का भी है कि देश की लड़कियाँ किसी समय यदि ‘महिला विश्व क्रिकेट’ के फ़ाइनल में भी पहुँची रहती हैं, तो भी वे किसी की ज़ुबान पर, किसी के ज्ञान तक में नहीं रहतीं, जब कि उसी समय पुरुष-क्रिकेट के किसी अदना से मैच में देश की जीत/बढ़त भी संक्रामक चर्चा का विषय बनी रहती है । ऐसे समय में देश के राष्ट्रपति/ प्रधानमन्त्री को चाहिए कि आज के दिन ( 2 अप्रैल) को राष्ट्रीय शोक-दिवस घोषित करें । आइये ! हम आज के विश्वकप फ़ाइनल मैच का बहिष्कार करें और जन्म लेने से वंचित की गयीं व जन्म-बाद उपेक्षा-अभाव से मार डाली गयीं करोड़ों बच्चियों के लिए राष्ट्रीय शोक मनाएँ ! --- रवीन्द्र कुमार पाठक औरंगाबाद,बिहार / 2-04-2011


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1)

स्त्री को बचना चाहिए इसलिए नहीं कि उसे तुम्हारी प्रेयसी बनना है, उसे तुम्हारी पत्नी बनना है । इसलिए नहीं कि उसे तुम्हारी बहन बनना है। इसलिए भी नहीं कि वह तुम्हारी जननी है और तुम जैसों को आगे भी पैदा करती रहे ! उसे बचना चाहिए, बल्कि उसे बचने का पूरा हक़ है – राजनैतिक हक़, इसलिए कि वह भी तुम्हारी तरह हाड़-माँस की इन्सान है ।

तुम ने उसे देवमन्दिर कहा और बना दिया देवदासी। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते..’ और ‘ कार्येषु दासी शयनेषु रम्भा ‘ को एक साथ तुम्हारा ही पाखण्डी दर्शन साध सकता था ! देवी बनाना या उसे श्रद्धा बताना भी तो अपमान है उस की इन्सानियत का – उस की इच्छा , वासना, भोग-त्यागमय सहज स्पन्दनों का या है उसे जड़ता प्रदान कर देना ,पत्थर में तब्दील कर के। ”

-- रवीन्द्र

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

पर्यावरण-चेतना का भारतीय सांस्कृतिक सन्दर्भ


भारत की सांस्कृतिक परम्परा में पर्यावरण-चेतना की बात करने के पूर्व मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस आलेख का उद्देश्य आधुनिक पर्यावरण-विज्ञान का किसी प्रकार से अवमूल्यन करना नहीं है इस बात को स्वीकार करने में हमें किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए कि अपने विशाल-बहुआयामी रूप में जो पर्यावरण-विद्या आज दिखलाई दे रही है, वह निश्चय ही आधुनिक चिन्ता की देन है, परन्तु इस के पूर्वस्रोतों के रूप में हमारी प्रवाहशील परम्परा में नाना अनुश्रुतियाँ अनायास उपलब्ध होती हैं, जो आज तक के हमारे जीवन को अपनी प्रतिच्छवियों से संसिक्त करती रही हैं
भारतीय दर्शन में सृष्टि के मूल घटकों को पुरुष और प्रकृति के रूप में समझने की सुदीर्घ चेष्टा दिखलाई पड़ती है आज जब स्त्री-विमर्श की चेतना विकसित हो गयी है, तो यह द्विविभाजन हमें सन्दिग्ध कर सकता है, करता भी है, परन्तु इस प्रतिपादन की भाषिक संरचना को परे हटा कर यदि मूल कथ्य की थाह लें तो पुरुष प्रकृति क्रमश: चेतन जड़ तत्त्वों का अर्थ देते प्रतीत होते हैं प्रकृति इस विश्व का शरीर पक्ष है और चेतन तत्त्व (पुरुष) उस का आत्म-पक्ष इस अर्थ में हम सभी प्राणियों का (चाहे नर हों या मादा) का शरीर प्रकृति है उस में निवास करने वाला चेतन-तत्त्व (आत्मा) संचालक की भूमिका में रहता है चेतन-युक्त अस्तित्व को सजीव कहते हैं और शेष को निर्जीव
पेड़-पौधों से ले कर सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवाणु तक सजीव ही हैं हम जब अपने सापेक्ष विचार करते हैं, तो प्रकृति शब्द का प्रयोग उक्त दार्शनिक अर्थ से थोड़ा हट कर, मानवेतर समस्त सजीव-निर्जीव अस्तित्व के लिए करते हैं प्रकृति का यही आम अर्थ है, जिस के लिए पर्यावरण शब्द का भी प्रयोग होता है
ऐतिहासिक दृष्टि से पर्यावरण
शब्द नवगठित है हम धरतीवासी इन्सानों ने अपने चारो ओर के आवरण-रूप नैसर्गिक सम्पदा-कोश को पर्यावरण कहा है जो हमें जन्मजात-अनायास उपलब्ध है तथा जो हमारे जीवन की उत्पत्ति-स्थिति संहार का मूल आधार है इस कोश में मिट्टी-जल-वायु-आकाश-ताप आदि अजैव घटक तथा वनस्पति और स्तनधारियों से ले कर सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवाणुओं तक के जैव घटक आते हैं इस सब की मात्रा/संख्या के आपसी सन्तुलन का बना रहना प्राणी-जगत् के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त्त है। इस सन्तुलित स्थिति का भंग होना पर्यावरण-प्रदूषण कहलाता है तथा सन्तुलन को बनाए रखने के प्रयास पर्यावरण-संरक्षण कहलाते हैं
भारतीय मनीषा में यह बात दीर्घकाल से बैठी हुई है कि हम सब प्रकृति के ही अंग हैं, हमारा शरीर(तन+मन) प्राकृतिक शक्तियों का ही पूँजीभूत रूप है -- यत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे
(--जो इस शरीर में है,वही तो विशाल पैमाने पर ब्रह्माण्ड में है) भौतिक स्थितियाँ इन्सान की चेतना का निर्माण या निर्धारण करती हैं अलग-अलग पर्यावरणीय बुनावट में सभ्यता-संस्कृति के अलग-अलग रंग पैदा होते हैं व्याकरणिक भाषा में कहें, तो मानवीय(जैव) सभ्यता-संस्कृति का वस्तुत: अधिकरण है पर्यावरण ।
पंच-प्रकृतियों / महाभूतों (क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर) की यदि बात करें, तो उन में जल-तत्त्व की अहम भूमिका रही है पृथ्वी का इकहत्तर प्रतिशत हिस्सा जल से आच्छादित है । भारतीय दर्शन की एक मान्यता के अनुसार जल से धरती की उत्पत्ति हुई है, जिस से इन का सीधा सम्बन्ध बनता है । मानव-सभ्यता का विकास उन्हीं क्षेत्रों सर्वप्रथम अबाध रूप से हुआ, जहाँ जल-स्रोत(नदियों) की उपलब्धि थी तथा इन्सान ने जल-प्रबन्धन के समुचित तरीके आयत्त किये थे विश्व-इतिहास में नदी-घाटी-सभ्यताओं का लम्बा दौर चला है, जिस में नदियों का देव-देवियों के रूप में विकास भी दिखलाई पड़ा Human Of The Mystic Fire (अग्नि-स्तुति) की भूमिका में श्रीअरविन्द ने भारत में एक नदी (सरस्वती) के स्थूल रूप के विद्या-ज्ञान कला के सूक्ष्म रूप (देवी सरस्वती) में ढल जाने का उल्लेख किया है नदियाँ रसवती होती हैं। ये धरती माता के शरीर में नस-नाड़ियों की तरह होती हैं--पृथ्वी में प्रजनन की गति तथा शक्ति भरने वाली और नाना सुख देने वाली इन से धरती पर नाना सृष्टियाँ निरन्तर उभरती, चलती तथा मिटती रहती हैं
साहित्य में जल-तत्त्व की उपस्थिति आलम्बन और उद्दीपन दोनो रूपों में है भाषा यदि बहता हुआ नीर है, तो काव्य की भाषा में इस नीर का उपमार्थ / रूपकार्थ में प्रचुर प्रयोग भी होते रहा है काव्य(साहित्य) का चरम तत्त्व रस तो जल का ही रूप है वर्षा के मंगल से प्रारम्भ होता है जयदेव का गीतगोविन्द, जिस में कृष्ण से मिलने को आतुर राधा की व्याकुलता की पृष्ठभूमि है -- काले बादलों से घिरा वर्षाकालीन आकाश वही जल तत्त्व है, जो एक ओर सूरदास की विरहाकुल गोपियों के नयनों से बरसता है, तो दूसरी ओर प्रलयंकर हो कर कामायनीके नायक मनु के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा है विश्वप्रसिद्ध दूतकाव्य मेघदूतका सम्बोध्य यदि आषाढ़ के प्रथम दिवस पर बाह्य आकाश से भी अधिक विरही नायक (यक्ष) के हृदयाकाश में उमड़ता-घुमड़ता मेघ है, तो आधुनिक मीरा से अभिहित हिन्दी-कविता की दीपशिखा महादेवी वर्मा स्वयं ही नीरभरी दुख की बदली हैं इसी तरह निराला का बादल-रागहो या सुमित्रानन्दन पन्त का नौका-विहारअथवा आषाढ़ से शुरु होने वाला, हिन्दी-प्रदेश के लोक का विरही-उच्छ्वास बारहमासा--सभी पर्यावरण के एक महत्त्वपूर्ण अंग जल की ही अलग-अलग परिणतियाँ हैं
हिन्दी-सिनेमा (के गीत-पक्ष) की बात करें, तो वहाँ रंगहीन जल विविध रंग ले कर छविमान है शोरफ़िल्म (१९७२ ई.) में पानी की रंगहीनता के बहाने जहाँ पारिस्थितिक अनुकूलन की व्यंजना है - ‘‘पानी रे,पानी तेरा रंग कैसा ? जिस में मिला दे लगे उसी जैसा", वहीं अनोखी रातफ़िल्म (१९६८ ई.)में प्रकृति में सहज रूप से कार्यरत जल-चक्र की ओर रहस्यात्मक संकेत है - "ओह रे ! ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में -- कोई जाने ना " फ़िल्म गंगा की लहरें(१९६४ ई.) के नायक का बोध जहाँ सारे जग के मुँह फेर लेने पर गंगा की लहरों द्वारा दिये गये सहयोग की कृतज्ञता से झुका हुआ है, वहीं फ़िल्म राम तेरी गंगा मैली(१९८५ ई.) में नायिका के स्वरों में नदी पर इन्सानी सभ्यता द्वारा ढाये गये कहर की टीस उभरी है, जो पितृसत्तात्मक समाज में नारी के देह-दलन से भी सघन रूप से सम्बद्ध हो जाती है फ़िल्म सी.आई.डी.’ (१९५६ ई.)का यह गीत जहाँ जल और वनस्पति को परस्पर सम्बद्ध रूप में उद्धृत करता है -- "बूझ मेरा क्या नाँव रे, नदी किनारे गाँव रे, पीपल झूमे मोरा आँगना ठण्डी- ठण्डी छाँव रे " वहीं बून्द जो बन गयी मोतीफ़िल्म (१९६७ ई.) का अध्यापक नायक कक्षा से बाहर हो कर, निसर्ग की विराट् पाठशाला में हरी-भरी वसुन्धरा पे नीला-नीला सा गगन....’ समूह-गान के जरिये छात्रों को पूरे पारितन्त्र (ico-system) के प्रति संवेदित करते हुए, स्कूली शिक्षा को पर्यावरण-चेतस् ही नहीं बनाता, बल्कि उस की बद्ध प्रणाली का रचनात्मक अतिक्रमण भी करता है
पुराने समय में(कहीं-कहीं आज भी) गाँवों में यदि कोई नया कुआँ बनता था, तो तब तक उस का उपयोग शुरु नहीं होता था, जब तक किसी बरगद-तरु के साथ उस के ब्याह की रस्म पूरी नहीं कर दी जाती थी ऊपरी तौर पर पितृसत्तात्मक-अन्धविश्वास से सना दिखने वाले इस लोकाचार में भी कुछ सहज बोध कार्यरत था, यह तो मानना ही होगा -- पहली बात तो जल वनस्पति में चेतना की अनुभूति, दूसरी बात, वनस्पति और जल का परस्पर अन्वयी सम्बन्ध इन दोनो बातों से आधुनिक पर्यावरण-विदों की लगभग सहमति है

अथर्ववेदने इस भुवन को आच्छादित करने वाले तीन तत्त्व--जल(अप्), वायु और वनस्पति(ओषधि) बतलाये हैं। जल और वनस्पति की सम्बद्धता का एक बड़ा स्रोत हिन्दू-माइथोलॉजी के भूगोल-वर्णन में उपलब्ध होता है, जिस में पृथ्वी की कल्पना सात समुद्रों और और उन में अवस्थित सात द्वीपों में की गयी है । उन सातो द्वीपों के नाम वनस्पतिपरक रहना ( जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप तथा पु्ष्करद्वीप ) हमारे पूर्वजों के जीवन में मौजूद और उन की चेतना में कार्यरत पेड़-पौधों की भूमिका का संकेतक है । प्राचीन भारतीय वाङ्मय -- ‘वैदिक-साहित्य’,‘पुराणों’,‘धर्मशास्त्रों’, ‘रामायण’, ‘महाभारत’, संस्कृत-साहित्य के अन्यान्य ग्रन्थों, पालि-प्राकृत साहित्य आदि की छानबीन करने पर पुरातन भारत की अरण्य-संस्कृति के मनोहर स्वरूप का साक्षात्कार होता है । संस्कृत-नाटकों में राजाओं के अन्त:पुरों से सटे प्रमदवनों की चर्चा बहुतायत से मिलती है, जिन की उचित देखभाल के लिए राज-कर्मचारी नियुक्त रहते थे । कौटिल्य के अर्थशास्त्रमें अनेक रमणीय उद्यानों का संकेत मिलता है, जो आज के पार्कों के भव्य पूर्वज हैं । नन्दन वन, चैत्ररथ वन, वृन्दावन, पुष्पकरण्डक वन, वैभ्राज वन, काम्यक वन, दण्डकारण्य, अशोकवाटिका आदि अभयारण्यों की नयनाभिराम झाँकी युग-युग तक हमारे चित्त को हरा-भरा बनाती रहेगी ।
वनस्पति-चिन्तन पर्यावरण-विज्ञान का सब से महत्त्वपूर्ण अंश है । धरती पर वनस्पति का उद्भव ( ४० करोड़ साल पूर्व) इंसान के आविर्भाव ( १ लाख वर्ष पूर्व) से काफी पहले की घटना है । पृथ्वी पर पाँच बार जीवन समाप्त हो चुका है, पर वृक्ष लगातार बने रहे हैं । ये वैसे प्राकृतिक घटक हैं, जो अपनी स्वाभाविक प्रक्रियाओं से पारिस्थितिक सन्तुलन को बनाए रखते हैं । ये मिट्टी का कटाव रोकते हैं, पानी को बाँध कर रखते हुए भू-जल के स्तर को धरती की कम गहराई में ही क़ायम रखते हैं, प्रकाश-संश्लेषण द्वारा वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड और ऑक्सीजन का सन्तुलन बनाए रखते हैं, बादलों को आकृष्ट करने व वर्षा कराने के जरिये जलचक्र की पूर्णता में भी इन का अहम योगदान है । ये शोर के प्रदूषण से भी हमें बचाते हैं । इस के अलावा, इन्सान सहित सभी प्राणियों के भोजन की उपलब्धि ये कराते ही हैं, बल्कि विविध जीवधारियों के प्राकृतिक आवास की भी भूमिका निभाते हुए जैव-विविधता को बरकरार रखते हैं । जिस प्रकार जड़ को सींचने से ही तना-शाखा-पत्ती-फूल-फल सब की पुष्टि हो जाती है उसी प्रकार सिर्फ वनों की सुरक्षा और परिवर्धन से पर्यावरण के सारे प्रदूषणों को दूर कर प्राकृतिक सन्तुलन कायम रखा जा सकता है । यह सूक्ष्म और जटिलविज्ञान भले सब के ज्ञान में न हो, परन्तु वृक्ष से अपने अस्तित्व का सम्बद्ध होना निश्चय ही आम जनता के सहज बोध में रहा है । नीम-पीपल आदि वृक्षों को घर-आँगन या आसपास लगा कर हमारी परम्परा ने इसी बात का संकेत दिया है ।
वृक्ष हमारे लिए ज़मीन पर चुपचाप खड़ी रहने वाली हरी चीज कभी नहीं रहे । ये हमारे जीवन में रचे-बसे रहे हैं । हम ने इन्हें अपनी कथा कहानियों, लोक-गाथाओं, लोकगीतों और नाना कलाओं में सँजोये रखा है । भारतीय सभ्यता-संस्कृति का लम्बा दौर निसर्ग की पावन गोद में ही विकसित हुआ है, जिस में शुद्ध वायु, खुले आकाश, अखण्ड हरीतिमा एवं निर्मल जलधारा के सान्निध्य में हमारी चिन्ताधारा को अनुप्राणित करने वाले गौरव-ग्रन्थ रचे गये । इसलिए, यह संयोग भर नहीं है कि भारतीय साहित्य का बड़ा हिस्सा वन-सम्पदा को आलम्बन भाव से चित्रित करता है, चाहे वाल्मीकि, अश्वघोष, व्यास, कालिदास, भारवि, भवभूति, बाणभट्ट की बात करें या हिन्दी के स्वच्छन्दतावादी/छायावादी रचनाकारों की -- सब में प्रकृति एक स्वतन्त्र चेतन अस्तित्व ले कर विद्यमान है । पण्डितराज जगन्नाथ के ग्रन्थ भामिनी विलासमें वृक्ष के उपकारों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन के स्वर सुने जा सकते हैं । वहाँ कहा गया है कि पेड़ को नमस्कार है, जो फूल-पत्ती व फल का भार उठा कर, धूप की तपन, शीत की पीड़ा सह कर, दूसरों के सुख के लिए अपना शरीर अर्पित कर देता है ।
पीपल, नीम, सेमल (शाल्मलि), कदम्ब, शिरीष, अशोक, आम, देवदारु, मौलिश्री, जामुन, कहुआ (अर्जुन), पाँकड़ (प्लक्ष/पर्कटी), शीशम, इमली, कचनार (कोविदार), अमलतास, करील आदि के रचनात्मक हस्तक्षेप से हमारी जातीय स्मृतियाँ (शिष्ट व लोक साहित्य) भरी पड़ी हैं । पीपल जैसे गम्भीर पर्यावरण-रक्षक तरु का तो कहना ही क्या ? गौतम बुद्ध के ज्ञान का साक्षी यह बोधिवृक्ष गीतामें कृष्ण द्वारा उन के अपने स्वरूप की तरह उल्लिखित है -- अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्
( हे अर्जुन! मैं वृक्षों में पीपल हूँ)१० फूलों, लताओं या वनस्पतियों के नाम पर इन्सानों और नगरों/नदियों के नाम रहना भी आम चलन सा रहा है -- आम्रपाली, चमेली, चम्पा, आम्रगुप्त, पुष्पपुर, हज़ारीबाग, खेजड़ीली आदि । मध्यप्रदेश के भिण्ड क्षेत्र से पाँच वीं सदी की एक मूर्त्ति मिली है, जिस में सीता अशोक वृक्ष के नीचे शोकाकुल बैठी हुई हैं । कुषाणकालीन मूर्त्तियों में भी वृक्ष दिखलाये गये हैं । साँची के स्तूप (१५० ई.पू.) में भी आम्र-प्रतिमाएँ चित्रित हुई हैं । मूर्त्तिकला के भी पर्यावरण-चेतस् होने की संकेतक हैं ये घटनाएँ । सामन्तयुगीन भारत की चौंसठ कलाओं में से कई का वनस्पति से सीधा सम्बन्ध रहा है । ११
फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) के इस सोहाग-गीत में पेड़ के साथ जन-मन का अटूट रिश्ता तो ध्वनित होता ही है, अपितु जैव-विविधता मे आश्रय-स्थल पेड़/वन के नष्ट होने की चिन्ता भी आकार लेती है । बेटी कहती है -- ‘‘ बाबा! नीम का पेड़ मत काटना , उस में चिड़ियाँ बसती हैं । ’’ १२
पेड़ को मायके का प्रतीक मान कर उस का कहना है कि मुझे दूर देश में मत ब्याहना, अन्यथा यह देश छूट जाएगा । हिन्दी के महान् सर्जक आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने कई ललित निबन्धों का विषय वनस्पति को बना कर उस से अभूतपूर्व मानवतावादी निष्कर्ष निकाले हैं -- ‘अशोक के फूल’, ‘शिरीष के फूल’, ‘देवदारु’, ‘आम फिर बौरा गयेआदि । साहित्य में हिमालय की परम्पराशीर्षक अपने निबन्ध में वे भलीभाँति अहसास कराते हैं कि एक हिमालय के न होने का असर (भारतीय पारिस्थितिकी,अर्थव्यवस्था पर ही नहीं पड़ता, वरन् ) भारतीय साहित्य, संस्कृति, लोक-जीवन, जातीय जीवन आदि को किस हद तक रसहीन बना सकता था ! कालिदास ने हिमालय के ही भव्य चित्रण से अपने काव्य कुमारसम्भवम्का प्रारम्भ करते हुए उसे देवतात्मा’, ‘नगाधिराज(पर्वतों का राजा) तथा पूर्व और पश्चिम समुद्र रूपी पलड़ों को सम्हाले हुए मानदण्ड(तराजू की दण्डी) कहा १३ -- मानदण्ड अर्थात् धरती पर विकस रही सभ्यता-संस्कृति की गुणवत्ता का मापक/पैमाना । हिन्दी के मशहूर कहानीकार सुदर्शन ने अपनी कहानी प्रेमतरुमें बड़े यत्न से लालित-पालित बेरी के एक पेड़ के लिए जान दे देने वाले दम्पति का चित्रण किया है । सभ्यता के लम्बे दौर में पेड़ों से इंसान के सुख-दुखात्मक नानावर्णी रागात्मक सम्बन्ध रहे हैं, जिन के चित्रण, चाहे वे अनगढ़ रूप में हों या कलात्मक, मानव के भावजगत् व साहित्य की अमूल्य थाती हैं । १४ पर्यावरण-रक्षक पेडों की कमी पर हमारे पूर्वज भी कम चिन्तित नहीं होते रहे हैं । रहीम कवि ने कहा था --
रहिमन वे अब बिरछ कहँ जिन की छाँह गँभीर
बागन बिच-बिच देखियत सेंहुड़ - कंज - करीर ॥ ’’
पुराणों में वृक्षों की महिमा बखानते हुए, उन के रोपने की विधियों, उन के लिए विशेष अनुष्ठानों, उद्यानों व तालाबों के निर्माण की प्रणालियों आदि का विस्तार से वर्णन मिलता है । अग्निपुराण
में कहा गया है कि जो मनुष्य एक भी वृक्ष की स्थापना करता है, वह तीस हज़ार इन्द्रों के काल तक स्वर्ग में बसता है । जितने ही वृक्षों का रोपण करता है, अपने पहले और पीछे की उतनी ही पीढ़ियों को वह तार देता है । मत्स्यपुराणमें वृक्ष-महिमा के प्रसंग में यहाँ तक कहा गया है कि दस कुओं के समान एक बावड़ी, दस बावड़ियों के समान एक एक तालाब, दस तालाबों के समान एक पुत्र का महत्त्व है, जब कि दस पुत्रों के समान महत्त्व एक वृक्ष का अकेले है। १५ इस पर यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुति की भाषा भले परलोकवादी-पितृसत्तात्मक सामन्ती फ़्रेम में कसी हुई है, किन्तु पर्यावरण को महत्त्व देने की चेतना कहीं न कहीं इन में समाहित है । अग्निपुराणके २८२ वें अध्याय में -- किस ऋतु में कब(सुबह या शाम) पेड़ लगाएँ; किस प्रकार गड्ढा बना कर उस का रोपण करें, किस मौसम में कितनी बार सेचन करें, फूल-फल आदि न लगते हों तो क्या करें ? -- आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है ।
शास्त्र-विहित कर्मकाण्डों में हमारे पूर्वजों ने वनस्पति, नदी और देश-काल की चेतना को स्थान दे कर कुछ तो सन्देश दिया ही है । हर धार्मिक कृत्य का संकल्प-वाक्य चाहे कुछ कहे या न कहे, पर यह जरूर बताता है कि अपने किसी कृत्य के स्थान व समय विशेष को विशाल ब्रह्माण्डीय सन्दर्भ में कैसे संसूचित (लोकेट) करना चाहिए । १६
हर कर्मकाण्ड के लिए इस तरह के संकल्प-वाक्य, हर धार्मिक कृत्य का वनस्पति के किसी न किसी रूप/अंग से सम्बन्ध तथा कर्मकाण्ड हेतु विहित जल में गंगा आदि नदियों व तीर्थस्थलों का आवाहन ! १७ -- आज ये सब कर्मकाण्ड करना कई तरह से भले ग़ैर-जरूरी या तिथिबाह्य (आउट ऑफ़ डेट) हो चुका है, पर ये सब मिल कर प्राचीन भारत के लोक-चित्त में विद्यमान रही किसी व्यापक पर्यावरणीय संवेदना का आभास तो कराते ही हैं ।
पेड़ों को देवताओं के प्रतीक रूप में उपस्थापित कर सश्रद्ध भाव से उन की विधिवत् पूजा-अर्चना तथा सुरक्षा के जो नियम शास्त्रीय व लौकिक परम्परा में प्रतिपादित और कार्यरत रहे हैं, वे पर्यावरण-रक्षक वर्तमान कानूनों के पूर्वज तो कहे ही जा सकते हैं । हिन्दू-कल्पना के नवग्रहों में से हर की कोई न कोई वनस्पति है ।
जैसे- सूर्य की वनस्पति आक है, चन्द्र की पलाश, मंगल की खैर आदि । तुलसी विष्णुप्रिया है, केला वृहस्पति का रूप है, बरगद शिव का निवास है, नीम देवी का वास है, पीपल विष्णु/कृष्ण का प्रतिरूप है -- आदि मान्यताएँ एक प्रकार से इन उपयोगी वनस्पतियों को नष्ट करने को निषिद्ध कर देती हैं । जैन तेरापन्थमें तो गुरुदीक्षा के नियमों में से एक है -- हरे पेड़ को न काटना । पृथ्वी, नदियों-सरोवरों, आकाश, वायु आदि को देवत्व प्रदान कर, धरती (व नदियों) को माता १८ (और आकाश को पिता) के रूप में अंगीकार कर भारतीय मनीषा ने जलवायु को प्रदूषण-मुक्त रखने के भाव को भी अमूर्त्त प्रेरणा दी है । वैदिक युग के तैंतीस देवता प्राकृतिक शक्तियों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं । ऋग्वेद का अप् सूक्तऔर अथर्ववेद का भूमिसूक्त क्रमश: जल व ज़मीन पर लिखी विश्व की सम्भवत: पहली कविताएँ हैं । वेद कहता है -- ‘‘ वनस्पतिं वन आस्थापयध्वं नि षू दधिध्वम् अखनन्त उत्सम् । ’’ १९ यानी, वनस्पति लगाओ और उसे बचाओ क्योंकि ये जल-स्रोतों की रक्षा करते हैं । पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक, जल और वनस्पति के प्रति हिंसा (प्रदूषण) न करने की हिदायत देता है यजुर्वेद’ -- ‘पृथिवीं मा हिंसी:’ , ‘अन्तरिक्षं मा हिंसी:’ ‘दिवं मा हिंसी:’, ‘मापो हिंसी: मा ओषधीर्हिंसी:’ २० । लोक में चीटियों को गुड़ तथा मछलियों व चिड़ियों को दाना खिलाने और गर्मियों में पशु-पक्षियों के लिए पीने का पानी रख देने की जो सहज प्रवृत्तियाँ प्रचलित रही हैं, वे प्राणी-संरक्षण की चेतना से अनुप्राणित हैंप्राचीनकाल से ही (वनस्पति) पशु-पक्षियों आदि को देवताओं के साथ जोड़ कर जैव-विविधता को अनायास संरक्षित - संवर्धित किया जा सका था । गरुड़, मोर, सिंह, उल्लू, मगरमच्छ, कछुआ, सर्प, तोता, मूषक आदि को किसी न किसी देवता के वाहन के रूप में कल्पित किया गया और सब से उपयोगी पशु गाय को सर्व-देवमयी कहा गया ; फिर पृथ्वी को गो-रूपा कहा गया । वृक्ष के किसी अंग का उपयोग करने के पूर्व, उस के समक्ष श्रद्धानत हो कर कुछ प्रार्थना, कुछ याचना करने का भाव भी यहाँ खूब रहा है । २१ उन से आज के वृक्ष-जल्लादबहुत कुछ सीख सकते हैं । इस देश में पेड़ों के स्वास्थ्य की चिन्ता भी बलवती रही है, जिस से वृक्षायुर्वेदनामक विद्या विकसित हो कर रही । अग्निपुराण’ (२८२ वें अध्याय), ‘बृहत्संहिता’, ‘गरुड़पुराणआदि में इस विद्या की चर्चा है । सुबह उठते समय धरती पर पैर रखने मात्र के लिए जो लोग उसे सचेतन सा मानते हुए, क्षमा-याचक मुद्रा में रह सकते हैं, उन से पर्यावरण के किसी प्रदूषण का अपराध हो, यह कल्पना से परे है । २२
ऐसी परम्परा में यह स्वाभाविक है कि प्रकृति पर विजय प्राप्त करने अथवा उस के निर्मम दोहन का भाव यहाँ की एक चिन्तनशील धारा को शुरु से ही अस्वीकार्य रहा है । प्रकृति को जीतने की कल्पना उसी तरह मूर्खतापूर्ण है, जिस प्रकार हाथ द्वारा हृदय व स्नायु-मण्डल को जीतने की कल्पना । यह न समझ कर, केवल भोग या पैसे की अन्धी दौड़ में पड़े प्रकृति का हृदयहीन-असन्तुलित दोहन करते रहें, तो हमारा वही हाल होगा, जो कामायनीमें देव-सभ्यता का हुआ। देव जाति दिन-रात विलासिता के अतिरेक में डूबी हुई थी -- अपने से ऊपर की सत्ता प्रकृति की सत्ता/ताकत को अनदेखा कर, उसे केवल भोग-सामग्री मान कर उस के साथ ज्यादतियाँ करने से बाज नहीं आ रही थी। परिणामत: विक्षुब्ध हो कर प्रकृति ने वह महाप्रलयकारी दृश्य दिखलाया, जिस में देव-सभ्यता सम्पूर्णत: विलीन हो गयी । कामायनीकार ने चिन्तासर्ग में ऐसे महानाश की कथा कह कर अन्धभोग में निसर्ग के अविवेकी निर्दलन के खिलाफ़ हमें आगाह किया है । २३
निसर्ग की आत्मा को पहचानने वाले महान् सर्जक रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने नदी पर बाँध बनाने के खिलाफ मुक्तधारातथा भू-गर्भ के दोहन के खिलाफ रक्तकरबीनामक नाटक और अनेक निबन्ध लिखे थे। पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई रोकने हेतु देशी तरीके से जन-संघर्ष का यहाँ शानदार इतिहास रहा है । १७३१ ई. में राजस्थान में जोधपुर के समीप स्थित खेजड़ीली गाँव में, खेजड़ी वृक्ष को बचाने के लिए बिश्नोई समूह के ३६३ नर-नारियों ने अपने प्राणों की बलि दे दी । पेड़ों से चिपक कर वे उन्हें काटने का विरोध कर रहे थे, जोधपुर-नरेश की ज़ुल्मी कुल्हाड़ियों ने उन्हें बेरहमी से काट डाला था । पर, उन का बलिदान व्यर्थ न गया। बाद में कटाई रोक दी गयी थी। उसी से प्रेरित था टिहरी-गढ़वाल का चिपको आन्दोलन(१९७२ ई.), जो स्वतन्त्र भारत में पेड़ों को बचाने में ऐतिहासिक सिद्ध हुआ ।
पर्यावरण का विषय केवल प्रदूषण तक सीमित नहीं है । इस का सब से प्राथमिक पहलू प्राकृतिक तत्वों / संसाधनों के स्वत:घटित पारस्परिक सन्तुलन (ऋतचक्र) की रक्षा है । इस के साथ, महत्त्वपूर्ण पहलू उन के स्वामित्व के समतापूर्ण वितरण से जुड़ा हुआ है । नैसर्गिक संसाधनों के संरक्षणार्थ, उन के पुन:चक्रण (रि-साइकलिंग) को बनाए रखने के लिए हमारे देश में मौसम के अनुसार खाद्य-अखाद्य व परिचर्या के विधान तथा फ़सल-चक्र वाली खेती प्रचलित रहे हैं । बंगाल के खनार-बनार’, ‘घाघ-भडली की कहावतेंआदि दर-असल मिट्टी-जल और सौर ऊर्जा के अन्त:सम्बन्धों पर आधारित उन अनुभवों के संकलन हैं, जिन से खेती का काम सुचारू रूप से हो सकता है । कालिदास का ऋतुसंहार’ (सामन्ती परिवेश में) षड्-ऋतुओं के सन्दर्भ में इन्सानी जीवन की हलचलों और मनुष्य के दिल की धडकनों को निकट से सुनने का जहाँ प्रयास है, वहीं मौसम के अनुसार उस के जीवन के अनुकूलन का भी आख्यान है । हमारे देश में अधिकतर पर्व-त्यौहारों की व्यवस्था ऋतु के अनुसार है । हिन्दी-लोकगीतों के कई रूप -- चैती, कजरी, फ़ाग, सावन-झूला, बारहमासा आदि स्पष्टतया परिवर्तन ऋतु-चक्र के प्रति संचेतना की अभिव्यक्तियाँ हैं । सुबह जगते ही धरती माँ को प्रणाम करना, जीवन-ऊर्जा के मुख्य स्रोत सूर्य को नमस्कार करना तथा नमस्कार-जन्य लाभों को व्यवस्थित ढंग से प्राप्त करने के लिए सूर्य-नमस्कारनामक योग-पद्धति की रचना -- ये सब प्रकृति से संपृक्ति की ही हमारी चेष्टाएँ हैं ।
परम्परागत भारतीय चिन्तन हो या जीवन-पद्धति, उन में प्रकृति के प्रति विनयी रहने की जो सीख निहित है, वह सोचने पर गहरे अर्थ में गतिशील दिखता है । वह यह कि हमारे देह-मन-आत्म-मय अस्तित्व (लघु प्रकृति) का उस के मूलाधार बृहत् प्रकृति’ (विश्व प्रकृति) से सतत मधुर सम्बन्ध--संवाद बना रहे, इन के बीच एक संगीत छिड़ता रहे; ताकि हमें अपने अस्तित्व के मूल स्रोत से निरन्तर ऊर्जा मिलती रहे । ‘‘सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ही कुटुम्ब है, यहाँ किसी का अलग अस्तित्व नहीं है’’ --
भारतवर्ष की मुख्यधारा की यह निष्पत्ति अपने-आप में पर्यावरण-सुरक्षा का मूल सूत्र समेटे हुई है । प्राकृतिक तन्त्रों का संरक्षण और उन के बीच सन्तुलन स्थापित रखने का आशय यह है कि उन का उपयोग इस तरह हो, जिस से उन के मूल रूप में कम से कम परिवर्तन हो, जिस से आसान पुन:चक्रण (रि-साइकलिंग) द्वारा आसानी से उन की क्षति-पूर्त्ति होती रहे और प्राकृतिक संसाधन यथासम्भव अपने मूल रूप में बरकरार रहें । यह तब संभव है, जब हम लालच से रहित हो कर प्रकृति की उदारता का उपयोग/उपभोग करें, जिस की प्रेरणा ईशावास्योपनिषद्का प्रथम मन्त्र दे रहा है --‘‘ इस संसार में जो कुछ है, वह सब ईश्वर से व्याप्त या ईश्वर का आवास है, इसलिए उन का उपभोग करना हो तो बिना उन में आसक्ति रखे, त्याग-भाव से उपभोग करें, कारण यह धन है किस का ? अर्थात्, किसी एक का तो है नहीं । ’’ २४ इस सन्दर्भ में गाँधी जी ने भी कहा था -- ‘‘ प्रकृति के भण्डार में हर किसी की जरूरतें पूरा करने को यथेष्ट संसाधन हैं, पर किसी भी लालच को पूरा करने में यह भण्डार असमर्थ है । ’’ यजुर्वेदमें प्रतिपादित भोजन का यह दर्शन समग्र पर्यावरण-चिन्ता तथा विवेकपूर्ण भोग-दृष्टि का सुन्दर निदर्शन है -- ‘‘ नदियाँ बहती रहें, बादल बरसते रहें, वनस्पतियाँ फूलती-फलती रहें और हम उन से प्राप्त अन्न-फल आदि को सिद्धिप्रद मान कर पवित्र मन से ग्रहण करते रहें । ’’ २५ कितनी सही है यह जीवन-दृष्टि ! पर्यावरण के हर अंग की स्वच्छता तथा सब के बीच सौमनस्य बनाए रखने के लिए सदा सचेष्ट रहने वाली मानसिकता से ही कभी यह मन्त्र सृजित हुआ होगा, जो आज तक किन्हीं लोगों की नित्य-प्रार्थना या कर्मकाण्ड का अंग बना हुआ है --
‘‘
द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्तिर्वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वं शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि । ’’ २६
--
अर्थात्, द्युलोक (आकाश), अन्तरिक्ष, पृथ्वी -- सब में शान्ति विराजे । सभी देवता, यानी प्राकृतिक शक्तियाँ शान्तिमय हों । सब की अलग-अलग शान्ति एक महाशान्ति की रचना करे, जिस से हमारे जीवन में शान्ति-समृद्धि बनी रहे ।
यहाँ शान्ति का अर्थ है संतुलन, जो नैसर्गिक तौर पर सहज सिद्ध है , पर हमारे जीवन-कर्मों से प्रकृति में जो विकृति / विशृंखलता आती रहती है, उस से विषमता पैदा हो जाती है, जिस से यह शान्ति छिन जाती है । तब, विषमता के निराकरण यानी विशृंखलताओं में समीकरण के बाद ही फिर से यह उपलब्ध हो पाती है । शान्ति में सुषमा है । सुषमा यानी सु(
अच्छी तरह से बनी) सम (सन्तुलन) की अवस्था, इसी में जीवन का सौन्दर्य है । उक्त मन्त्र सन्तुलित पर्यावरण के लिए संवेदित प्राचीन मनीषा का अन्यतम उदाहरण है ।
इस प्रकार, स्पष्ट है कि जीवन के आधारभूत तत्त्व के रूप में प्रकृति या पर्यावरण को समझने, उसे स्वीकारने, उस के प्रति संवेदनशील बने रहने का सशक्त-व्यापक भाव भारत के पुराने-नये तमाम सांस्कृतिक स्रोतों से छन कर आकार लेता है । आधुनिकता की किसी खण्डित दृष्टि से ग्रस्त हो कर, इस से अनजान बने रहना हमारी भूल है, परन्तु उस से भी बड़ी भूल हम तब कर बैठते हैं, जब इस परम्परागत पर्यावरण-चेतना / दर्शन को हम आधुनिक पर्यावरण-विज्ञान का विकल्प अथवा उस से भी बढ़ कर मान बैठते हैं तथा उसी के बहाने कभी-कभी तत्कालीन पिछड़ी (या अमानवीय रही) समाज-व्यवस्था का सपना भी परोसने लगते हैं । वह होती है हमारी कूपमण्डूकता, अतीत-मग्न हमारी मोहनिद्रा और हमारा विकलांग संस्कृति-बोध । हमें सिर्फ़ इतना समझना चाहिए कि यदि हम अपने पारिस्थितिक असन्तुलन को ले कर चिन्ता / चिन्तन - रत एवं क्रियाशील होते हैं, तो पर्यावरण-संचेतना की ये देशी जड़ें हमारी मतिकृति को किसी हद तक परिष्कृत और टिकाऊ बनाने में निश्चय ही मददगार साबित होती हैं । जरूरत है इन्हें परख कर देखने की ।


००००००००००००००००००००००००००००

सन्दर्भ
:--
)
" तम: प्रधानविक्षेप शक्तिमदज्ञानोपहितचैतन्यादाकाश--आकाशाद्
वायु
:वायोरग्निरग्नेरापोद्भ्य: पृथिवीचोत्पद्यते।’’--‘वेदान्तसार’,सृष्टिक्रम(-सदानन्द योगीन्द्र) ) ‘ इस में कोई सन्देह नहीं हो सकता कि आरम्भ में भौतिक जगत् की शक्तियों की पूजा होती थी, जैसे सूर्य, चन्द्रमा, द्यौ और पृथ्वी, वायु, वर्षा और आँधी की, पवित्र नदियों की तथा अनेक देवों की, जो प्रकृति की क्रियाओं का अधिष्ठातृत्व करते हैं ।.....सभी देशों में इन देवताओं ने एक उच्चतर आन्तरिक या आध्यात्मिक व्यापार ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था । ..... सरस्वती एक नदी-देवता, भारत में ज्ञान, विद्या, कला और कौशल की देवी हो जाती है ।’’
-- ‘
वेद-रहस्य’ (- श्री अरविन्द)
) ‘‘ भौतिक राष्ट्रों की माताएँ नदियाँ हैं और पर्वत पिता । पिता निश्चेष्ट, निर्बन्ध और चिन्तामुक्त, निर्द्वन्द्व पुरुष है । नदियाँ सचेष्ट, गतिशील, मुक्तिदात्री एवं रसवती सरस्वती हैं । शून्य में स्वच्छन्द विचरण करने वाला मेघ जब क्षितिज की शय्या पर हलचल मचा कर रिक्त हो जाते हैं, तब माता पृथ्वी उस तेजोद्दीप्त जीवन-पुष्प को सरितन्तुओं के द्वारा धारण करती हैं । ....ये सरिताएँ ही पृथ्वी में प्रजनन की गति तथा शक्ति भरती हैं । माता पृथ्वी के शरीर में शिराओं का काम ये सरिताएँ ही करती हैं, जिस से रसमयी धरित्री पर जड़-जंगम की सृष्टि निरन्तर उभरती, चलती तथा मिटती रहती है ।’’
--
बिहार की नदियाँ’ - ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सर्वेक्षण’,१९७७(-हवलदार त्रिपाठी सहृदय’ )
) ‘‘ मेघैर्मेदुरमम्बरंवनभुव: श्यामास्तमालद्रुमै:
नक्तंभीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय ।
’’
-- ‘
गीतगोविन्द’ (- जयदेव १,)

) ‘‘ हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह ।
एक पुरुष भींगे नयनों से देख रहा था प्रलय
-प्रवाह ॥’’
-- ‘
कामायनी’,‘चिन्तासर्ग ।
) आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को दिनांक १३-०६-१९४२ को लिखे पत्र में संस्कृत-साहित्य में उल्लिखित, नदियों के निम्न प्रकार के माहात्म्य बतलाये थे --
(
) काव्यों में -- सौन्दर्य की दृष्टि से
(
) पुराणों में -- पुण्य की दृष्टि से
(
) आयुर्वेदिक ग्रन्थों में -- स्वास्थ्य की दृष्टि से
(
) ज्योतिष-ग्रन्थों में -- उन के बहाव आदि पर से शुभाशुभ फल की दृष्टि से
(
) फुटकल ।
.) ‘‘ त्रीणि छन्दान्सि कवयो वि येतिरे पुरुरूपं दर्शनं विश्वचक्षणम्
आपो वाता ओषधय
: तान्येकस्मिन् भुवन आर्पितानि ॥ ’’---(‘अथर्ववेद’-१८--१७)
) ‘‘ जम्बूप्लक्षाह्वयौ द्वीपौ शाल्मलश्चापरोद्विज
कुशक्रौञ्चस्तथाशाक
:पुष्करश्चैव सप्तम:’’---‘विष्णुपुराण,--
) श्रीमद् भगवद्गीता, १०-२६
१०
) इसी तरह,
पिबन्ति नद्य
: स्वयमेव नाम्भ: स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा:
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहा
: परोपकाराय सतां विभूतय:
११
) ‘पुष्पास्तरण (फूलों से घर सजाना,फूलों की शय्या बिछाना), ‘माल्यग्रथनविकल्पा:’ (विविध प्रकार की मालाएँ गूँथना), ‘वृक्षायुर्वेदयोगा:’ (वृक्ष-लतादि की चिकित्सा, इच्छानुसार उन की काट-छाँट करना आदि) तथा पुष्पशकटिका(फूलों की गाड़ी बनाना) --- ‘कामसूत्र, -६४
१२
) ‘‘ बाबा ! निमिया कै पेड़ जनि काटेऊ,
निमिया चिरैया बसेर
, बलैया लेहु बीरन की ।
बाबा
! पीपरा कै पेड़ जनि काटेऊ,
पिपरा चिरैया बसेर
, बलैया लेहु बीरन की ।
बाबा
! दुरि देस जनि ब्याहेऊ,
छुटि जैहैं बाबुल केर देस
,बलैया लेहु बीरन की । ’’
१३
) ‘‘ अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयोनाम नगाधिराज:
पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्यस्थित
: पृथिव्यामिव मानदण्ड :
--‘
कुमारसम्भवम्’, -
१४
) निम्न कविता में ऐसी ही कुछ संवेदनाएँ महसूस की जा सकती हैं --
उस वृक्ष को किस ने गिराया इस भरे मधुमास में
?

जो मुक्त मन से सुरभि का वर्षण सदा करता रहा
,
जो ताप
-व्याकुल प्राणियों को वरद छाया से नहा ,
फूला समाता था न खग को दे बसेरा पास में । उस वृक्ष
....
जिस की शरण में कई आये छोड़ गृह बैराग से
,
जिस के तले दो दिल धड़कते भर प्रथम अनुराग से
,
हर साँझ विकल बना रहा शिशु
-आगमन की आस में । उस वृक्ष....
जिस ने सहा कई बार पावस की रसीली मार को
,
पुलकित हुआ ले कर वनानी के वसन्ती भार को
,
साथी रहा हर बार भू के तापमय उच्छ्वास में । उस वृक्ष
....
हा
! हृदय-धन वह लुट गया ,वह कौन सा षड्यंत्र था ?
मरुभूमि मधुवन को बनाया
, कौन मारण-मन्त्र था ?
अब किसे अपनी बात कह हल्का करूँ जी त्रास में
? उस वृक्ष....
(-
रवीन्द्र कुमार पाठक)


१५
) ‘आरामं कारयेत् यस्तु नन्दने सुचिरं वसेत्’--‘अग्निपुराण’,६६-२९
पापनाश: परासिद्धि: वृक्षारामप्रतिष्ठया’ -- ‘अग्निपुराण’,७०-
दशकूप-समा वापी दशवापी-समो हृद:
दशहृद
-समो पुत्र: दशपुत्र-समो द्रुम:’’ -- ‘मत्स्यपुराण
१६
) संकल्प कुछ इस प्रकार किया जाता है --
हरि
: ॐ तत्सत् ब्रह्मण: द्वितीय परार्द्धे श्रीश्वेतवाराह कल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशशततमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते....क्षेत्रे....नामके ग्रामे/नगरे मासोत्तमे....मासे....शुक्लपक्षे ....तिथौ....वासरे.......कर्ममहम्(कर्मं कर्तुम् संकल्पमहम्) करिष्ये ।
१७
) ‘‘ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती
नर्मदे सिन्धु
-कावेरि जलेस्मिन् सन्निधिं कुरु ।’’
१८
) ‘‘भूमि: माता पुत्रोहम् पृथिव्या: ’’-- यह धरती माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ । ( पुत्र शब्द का प्रयोग पितृसत्तात्मक समाज-संरचना के कारण हुआ है । ) ‘‘ धरती मेरी माता पिता आसमान’’ - फ़िल्म गीत गाता चल’ (१९७५ ई.) का गीत ।
१९
) ऋग्वेद , १०-१०१-१०
२०
.) यजुर्वेद के क्रमश: १३-१८, १४-१२, १५-६४ तथा ६-२२ से ।
२१
) आयुर्बलं यशोवर्च: प्रजापशुवसूनि च
ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते
! --
---‘
कात्यायनस्मृति’,१४-/ ‘गर्गसंहिता’,विज्ञानखण्ड,.
२२
) समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले !
विष्णुपत्नि
! नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ॥
२३
) ‘‘ आकर्षण से भरा विश्व यह केवल भोग्य हमारा,
जीवन के दोनो कूलों में बहे वासना
-धारा ॥ ’’
--‘
कामायनी’,‘कर्मसर्ग।
‘‘
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित् हम सब थे भूले मद में,
भोले थे
, हाँ तिरते केवल सब विलासिता के नद में ॥.......
शक्ति रही
, हाँ शक्ति, प्रकृति थी पद-तल में विनम्र-विश्रान्त ।
कँपती धरणी
, उन चरणों पर हो कर प्रतिदिन ही आक्रान्त ॥
स्वयं देव थे हम सब तो फिर क्यों न विशृंखल होती सृष्टि
,
अरे इसी से हुई अचानक कड़ी आपदाओं की वृष्टि ॥
.......
भरी वासना
-सरिता का वह कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय
-जलधि में संगम जिस का देख हृदय था उठा कराह ॥’’
--‘कामायनी’,‘चिन्तासर्ग।
२४
) ‘‘ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा
: मा गृध: कस्यस्विद्धनम् ॥ ’’
२५
) ‘‘ यन्तु नद्य: वर्षन्तु पर्जन्या: सुपिप्पला ओषधय:भवन्तु ।
अन्नवतामोदनवतामामिक्षवताम् । एषां राजा भूयासम्
ओदनमुद्ब्रुवते परमेष्ठी वा एष
: यदोदन: परमामेवैनं
श्रियं गमयति ॥
’’
२६
) यजुर्वेद, शान्तिपाठ,३६-१०
००
.................००.................००
-- डॉ.
रवीन्द्र कुमार पाठक


व्याख्याता, हिन्दी-विभाग,
गणेशलाल अग्रवाल कॉलेज,
मेदिनीनगर(डाल्टनगंज). झारखण्ड- ८२२१०२
दूरभाष - ०९८०१०९१६८२. .मेल.
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