जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

रविवार, 24 अप्रैल 2011

संस्कृति की बेटावादी संरचना का प्रभुत्व : स्त्री का घुटता और घटता अस्तित्व


युग-युग से चली आ रही, समाज की यह विषम संरचना है जिस के कारण स्त्री को पुरुष की तुलना में हर स्तर पर उपेक्षा, वंचना व उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है । उस की पीड़ा और अभावग्रस्तता की यह करुण कहानी बढते-बढ़ते आज अपने चरम रूप ‘नारियों के अभाव’ को प्राप्त हो चली है -- यह दिल दहलाने वाला तथ्य है , जिस पर आमतौर पर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है । पोषण , स्वास्थ्य-सुविधा आदि में भेदभाव के चलते स्त्री की अस्वाभाविक मरणशीलता तो रही ही है; परन्तु क्रूर सच्चाई यह है कि बेटे की चाहत में नवजात कन्या को मौत के घाट उतारने के ढेर सारे तरीके अतीत के धुँधलके से वर्तमान के रोशन इलाकों तक में प्रचलित रहे हैं । लिंग-परीक्षण की तकनीक की खोज ने तो ‘कन्या-वध’ की इस कुत्सित परम्परा में आज भीषण उछाल ला दिया है । बेटे पैदा करने के चौतरफा दबाव ने स्त्री को अपनी अजन्मी बच्ची की हत्यारिन तथा उस की कोख को कसाईघर बना डाला है। । देश की आबादी में ०-६ वर्षीय पुरुष-स्त्री-अनुपात, यानी लिंगानुपात पिछले ७० सालों में ९६ अंक नीचे गिर कर २०११ ई। में ९१४ हो चुका है । स्त्री की लगातार घटती संख्या का जिम्मेदार है--जनमानस में भयंकर रूप से बैठा पुत्र-मोह / पुत्री-द्रोह , जिसका धारक है पितृसत्तात्मक सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक ढाँचा तथा मर्द-केन्द्रित अर्थव्यवस्था । इस से बड़ी विसंगति और क्या हो सकती है कि सदियों से चल रहे इस हत्या-काण्ड को रोकने का प्रयास होता है या उस पर कोई चर्चा भी होती है, तो इसलिए कि समाज के ठेकेदारों को मर्दों के लिए बीवियों का अकाल दिखाई देने लगा है, जिस से एक ही पत्नी में भाई लोगों को शेयर तक करना पड़ रहा है । इसलिए नहीं कि लड़की को भी जीने का उतना ही हक़ है जितना लड़के को। ‘लिंग-परीक्षण’ रोकने के लिए बना कानून(२००२ई.) तो लगभग बेअसर है, जो करोड़ों में इक्का-दुक्का को ही सज़ा दे पाया है । स्त्री यदि इसी तरह अनचाही व घटती प्रजाति बनी रही, तो मर्दवादी समाज में उस की स्थिति मुर्गियों से भी बदतर हो जाएगी -- वह खुलेआम वीभत्स नोंच-खसोट की चीज बन जाएगी । तब, कहाँ होंगे हमारी लोकतांत्रिक संरचना या समता के दावे अथवा आज ही वे हैं कहाँ ?

--- रवीन्द्र कुमार पाठक
व्याख्याता,जी.एल.ए.कॉलेज,मेदिनीनगर(डाल्टनगंज),झारखण्ड-८२२१०२

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री को श्रद्धांजलि देते हुए...

कुपथ-कुपथ रथ दौड़ाता जो पथ-निर्देशक वह है, लाज लजाती जिस की कृति से धृति-उपदेशक वह है ।


मूर्त्त दम्भ गढ़ने उठता है शील-विनय परिभाषा,






मरण-रक्त मुख से देता जन को जीवन की आशा ।






जनता धरती पर बैठी है, नभ में मंच खड़ा है,






जो जितना है दूर मही से उतना वही बड़ा है ।






....................






ऊपर-ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं,






कहते ‘ऐसे ही जीते हैं’ जो जीने वाले हैं ।






कलरव करने वाले पंछी, पत्तों वाली डाली,






उन्हें कहाँ ठण्डक मिलती है, इन्हें कहाँ हरियाली ?



(‘मेघगीत’ से)






इन धारदार पंक्तियों के रचनाकार आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री अब हमारे बीच नहीं रहे, यह खबर मेरे अन्तर के एक कोने को कुछ अजीब सी रिक्तता का अहसास करा रही है ।






आचार्य जी कई दशकों से मौनभाव से सक्रिय थे तथा ९५ साल की भरी-पूरी साहित्यिक/इन्सानी ज़िन्दगी जी कर, बहुत कुछ दे कर, हमें छोड़ कर चुपचाप चले गये । मुझे जो कुछ मालूम है, उस के अनुसार वे समाज के अभावग्रस्त-निम्नवर्ग के प्रति सदैव सक्रिय-सहानुभूतिशील रहे । पशु-पंछियों के प्रति बेहद लगाव रखते हुए एक तरह से उन्हीं से अपना घर बसाए रखा । ये बातें महादेवी वर्मा से उन्हें जोड़ती हैं । उन का जाना (हिन्दी-) साहित्य-संसार की एक समृद्ध व दीर्घकालव्यापी परम्परा के साथ एक युग का भी अन्त है । वे कवि के रूप में अधिक ख्यात रहे, पर वे उस से काफी अधिक थे । उन के कवि-रूप पर विचार करें , तो वे छायावाद की आखिरी कड़ी थे, जो उत्तरछायावाद के प्रवर्तक भी कहे जाते हैं । उन्हों ने हिन्दी ही नहीं, संस्कृत के भी गीतिकाव्य को नवस्पन्दन प्रदान किया । यह दुर्लभ घटना है । शुरुआती दौर में, संस्कृत-गीतिकाव्य ‘काकली’ ने उन की अलग पहचान बनायी थी । वे निराला को अपना साहित्यिक आराध्य मानते थे तथा उन के व्यक्तित्व व सर्जना से निरन्तर अनुप्राणित होते रहे । ( विदित हो कि अपने मुज़फ़्फ़रपुर के घर को उन्हों ने ‘निराला-निकेतन’ नाम दे रखा था । ) अपने साहित्यिक आराध्य की तरह ही उन में संवेदना और किसी सीमा तक भाषा का भी वैविध्य रहा है । ( एक उदाहरण देने की इच्छा है - एक तरफ वे संस्कृतनिष्ठ सर्जना के धनी रहे, तो दूसरी तरफ ऐसे ठेठ प्रयोग भी करते थे -- ‘‘वह है सुकनी और सनीचरी, एतवरिया-सोमरिया । भीड़ लगाए खड़ी हुई मेहरारू करिया-करिया’’ ) साथ ही, विधागत विविधता की दृष्टि से भी उन का शब्द-संसार काफी समृद्ध रहा है । काव्य(महाकाव्य,गीतिकाव्य,गीत-ग़ज़ल), गीतिनाट्य, नाटक, आलोचना, निबन्ध, कहानी, उपन्यास, संस्मरण-आत्मकथा, पत्रिका-सम्पादन आदि से वह भरा पड़ा है । पर, जो बात असाधारण है, हिन्दी-रचनाशीलता/लेखन में जिस की आज बड़ी तेजी से कमी होती जा रही है तथा जिस के लिए उन का वास्तविक अभाव महसूस किया जाना चाहिए, वह है परम्परा का उन का गहरा बोध तथा उस के समकालीन पुन:सर्जन की क्षमता । यह बात मैं उन के ‘कालिदास’ नामक उपन्यास के अपने पठनानुभव के आधार पर कह सकता हूँ ।






उक्त कृति एक रचनाकार द्वारा भारत के एक क्लैसिकल रचनाकार को (उस के जीवन-दर्शन व साहित्य-दर्शन को ) समझने की शानदार कोशिश है, जिस की रचना-प्रक्रिया में उन के विलक्षण परिश्रम, सदसत्-विवेक व भव्य-अपूर्व कल्पना के साथ, लोकहितकारी व्यापक सौन्दर्य-दृष्टि का मणि-कांचन संयोग झलकता है । उन के द्वारा, कालिदास को फटेहाल-अभावग्रस्त, कथित निम्नजातीय समूह के दु:ख-दर्द से भी इन्सानी जीवन व कविता के लिए संवेदनाएँ ग्रहण करते दिखाना अपने आप में असमानान्तर-उदात्त कल्पना है । यह उपन्यास अभिज्ञानशाकुन्तलम्-मेघदूत-ऋतुसंहार-रघुवंश-कुमारसम्भव के बोध के ज़रिये हमारे भीतर धुँधले-से आकारवान् कवि कालिदास को ज़मीनी स्पष्टता प्रदान करता है । यहाँ ज़मीन से दुहरा आशय है --: (१) कालिदास के बहु-आभासित रोमैण्टिक व्यक्तित्व को लोक-जीवन का संस्पर्श देने का उपयोगी कार्य शास्त्री जी ने किया है । (२) जिस कालिदास का व्यक्तित्व किंवदन्तियों-दन्तकथाओं के घटाटोप में, साहित्यालोचकों-बौद्धिकों के बीच आज तक काल व देश के पेण्डुलम पर झूलते रहा है, उसे एक विश्वसनीय कथाभूमि पर देशकाल की पूरी प्रामाणिकता के साथ पुनराविष्कृत करने का दु:साध्य-साधन शास्त्री जी ने अपने जीवन के आठवें दशक में कर के हमें विस्मित किया है । पर, कैसी विडम्बना है कि इस मूल्यवान् व सुफल प्रयास की हिन्दी/संस्कृत-आलोचना ने कोई नोटिस तक न ली । इसी तरह, उन के महाकाव्यात्मक गीत-काव्य ‘राधा’ (७ खण्ड) की भी चर्चा न हुई, जिस ने इस जल्दबाज -क्षणजीवी समकाल में महाकाव्यात्मक औदात्य को इत्मीनान से सिरजा । इस के ज़रिये उन्हों ने जयदेव व सूरदास की परम्परा को पुनर्जीवित किया है, नवाकार भी दिया है । पर, कितना व किस रूप में ? -- यह आकलन करना अभी शेष है । कुल मिला कर, उन के जीवन व सृजनलोक में कई कीमती असाधारणताएँ रही हैं, जिन का उचित मूल्यांकन क्या, अवलोकन तक नहीं हुआ है।






शास्त्री जी वर्षों से हमारे बीच कुछ इस तरह थे कि उन का होना न होने के बराबर रह गया था, पर इस के पीछे उन की सर्जनात्मक मन्दता (जो उम्र-जनित थी) को उतना बड़ा कारण नहीं कहा जा सकता, जितना उन के प्रति हमारे उपेक्षा-भाव को । यह भाव निश्चित रूप से हमारी मीडिया-उन्मुख वर्तमान हवाई बोध(ग्रहणशीलता) की देन है, जो एक पीच पर कुछ लोगों की भागदौड़ (मैच) या किसी चमकीली/भड़कीली शादी को ब्रह्माण्डव्यापी समकालीन सच के रूप में बेशर्मी से महसूस करता-कराता है, पर बगल में हो रही लाखों जनों की भुखमरी, करोड़ों बच्चियों की गर्भ में ही हो रही हत्या/दहेज-हत्या या ओजोन-परत तक में छेद होने को बदतमीजी से नज़र-अन्दाज करता-कराता है । खैर ! शास्त्री जी की उपेक्षा का एक कारण हमारी बौद्धिकता अवश्य खोज लेगी -- समकालीन या किसी बड़ी प्रगतिशील या लोकप्रिय हलचल में उन का शरीक न होना ! पता नहीं, यह कितना सच है । पर, उन को अनदेखा करते जाने का यही एक कारण नहीं है, हम सब जानते हैं । आखिर आसाराम,मोरारी बापू,साईंबाबा अथवा हमारे नेता ही कौन सी प्रगतिशीलता पेश कर रहे हैं ? बात घूम-फिर कर सत्ता पर आती है, वह चाहे राजसत्ता हो, धर्मसत्ता या अर्थसत्ता ! उस से बिना सम्पृक्त हुए आप कुछ भी नहीं हैं । यह केवल जानकीवल्लभ शास्त्री का नहीं, बहुतेरे सरस्वती-साधकों या जन-सेवकों का सच है ।






जो हो, शास्त्री जी चिर-उपेक्षित रचनाकार रहे हैं । रचना के अनुपात में उन का बहुत कम मोल आँका गया है । कम से कम ‘कालिदास’ के लिए वे ज्ञानपीठ पुरस्कार से कम के हक़दार नहीं थे । पर, वह उन्हें मिलने वाला न था, यह बात हम रवीन्द्र कालिया(ओं) के आज के (अ)ज्ञानपीठ /ठों के ज़रिये नहीं, बल्कि पहले के (अ)ज्ञानपीठ /ठों को देख कर भी भली-भाँति समझ सकते हैं । जहाँ तक मुझे पता है, साहित्यिक अवदान के लिए अन्तिम बार वे तब चर्चा में आये थे, जब उत्तरप्रदेश सरकार का ‘भारत-भारती सम्मान’ (२००१) उन्हें मिला था । किसी गुणग्राही की नज़र पड़ गयी होगी । वैसे पुरस्कार/सम्मान के लिए हाय-तौबा मचाने वालों में वे बिल्कुल न थे । अन्यथा, भारत-सरकार द्वारा १९९४ व २०१० में प्रदान किये जा रहे ‘पद्मश्री’ को अस्वीकार न करते । अपनी उपेक्षा को ले कर भी उन्हें किसी से शिकायत न थी, बल्कि स्वयं को प्राप्त सम्मानों को ले कर वे संतुष्ट थे, जैसा कि ‘कालिदास’ की भूमिका में उन्हों ने स्वीकारा है ।






अफ़सोस है कि शास्त्री जी को मैं ने बहुत ज़्यादा नहीं पढ़ा है । मेरा उन से पहला परिचय ‘मेघगीत’ की उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से हुआ था और उन की तमाम रचनात्मक उपलब्धियों के बावजूद मैं उन्हें इन्हीं पंक्तियों के सर्जक के रूप में याद करते हुए श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ । आमजन के हित के प्रति निरपेक्ष ही नहीं, बल्कि उस की हत्या करने वाली -- देश की मौजूदा राजनैतिक-संवैधानिक-प्रशासनिक-न्यायिक विसंगतियों/पाखण्डों पर ये मार्मिक टिप्पणी हैं । विनायक सेन जैसे असली भारत-रत्नों को जेल देने वाली व्यवस्था और सचिन जैसों को भारत-रत्न देने के लिए पगलायी अन्धी भीड़ जब तक हमारे देश का राष्ट्रीय चरित्र रहेंगी, ये पंक्तियाँ अर्थवान् रहेंगी । पर, ये पंक्तियाँ मुकाम नहीं, एक शुरुआत हैं, ये तब जा कर पूरी/कृतार्थ होंगी जब सामाजिक स्वतन्त्रता के अहम सवाल को भी ये दिशा देने लग जाएँ, उन में भी सब से अहम स्त्री-मुक्ति के प्रश्न, उसे जन्म लेने तक के अधिकार से वंचित किये जाने के प्रश्न को ।






आचार्य जी का निधन एक साथ कई सवाल छोड़ गया है । इस के कारण मै अपने हृदय के एक खाली हुए कोने तक फिर से आता हूँ -- उस के लिए मुझे तर्क से अधिक संवेदना की जरूरत है । यद्यपि मैं ईश्वरवादी नहीं हूँ, मुझे ईश्वर की जरूरत भी नहीं है ,पर उपमान के लिए मुझे उसे कष्ट देना पड़ रहा है । शास्त्री जी ने कहीं, किसी आलोचना में लिखा था -- दुनिया का सब से पहला नास्तिक वही होगा, जिस ने ईश्वर को तर्क से सिद्ध करने की कोशिश की होगी । उसी का स्मरण करते हुए मैं उन्हें विनत संवेदनांजलि अर्पित करता हूँ और लम्बे समय से एक तरह से उन्हें भूले रहने के अपने अपराध के लिए उन की स्मृति से क्षमा-याचना करता हूँ !






-- रवीन्द्र






दूरभाष - ९८०१०९१६८२ ई-मेल : rkpathakaubr@gmail.com

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

जरूरत है कन्याओं की हत्या के विरुद्ध खड़े एक अन्ना की !

भ्रष्टाचार के समूल नाश के उद्देश्य से, जिन तर्कों और तेवरों के साथ अन्ना हजारे आमरण अनशन पर डटे हुए हैं, वह स्तुत्य और रोमांचकारी है । उन्हें नयी लड़ाई का गाँधी कहा जा रहा है । इस की सच्चाई में किसी को कोई सन्देह नहीं हो सकता । उन का अभियान सफल हो -- यह शुभकामना भर व्यक्त कर देना काफी नहीं है, बल्कि पूरी कृतज्ञता से अधिकाधिक संख्या में हमें उन के साथ उठ खड़ा होना चाहिए, क्योंकि इतनी अवस्था के हो कर भी, वे हमारे लिए ही यह कष्ट उठा रहे हैं । किन्तु, प्रसंग ऐसा आ पड़ा है कि अक्सर सोचने लगता हूँ -- काश ! कुछ अन्य दाहक सवालों पर भी ऐसे ही कुछ अन्ना और होते ! भ्रष्टाचार का आम तात्पर्य जो लगाया जाता है, वह बड़ा संकुचित है -- आर्थिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार मात्र । पर, इस से भी व्यापक व गहरा है सामाजिक भ्रष्टाचार, विशेषकर स्त्रियों व दलितों के साथ हो रहीं अमानुषिक यातनाऎँ । आमतौर पर आर्थिक व राजनैतिक अपराध पर चर्चा/बहस के शोर में सामाजिक व मानवीय अत्याचारों की चीख हम नहीं सुन पाते । उन से जुड़े अपराधों पर हमारी निगाह नहीं जा पाती,या कम जाती है अथवा जा कर भी ठहरती नहीं । किसी भी तर्कनिष्ठ व संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह तय करना मुश्किल नहीं होगा कि धन की हेराफेरी(घोटाले) या संसद पर हमला करने आदि से भी बड़े अपराध हैं निठारी-काण्ड, अनुसूचित जातियों की बस्तियाँ जलाना, गोधरा आदि के दंगे, लड़कियों/स्त्रियों का बलात्कार/हत्या, उनकी ट्रैफिकिंग या उन्हें बजबजाती देहमण्डी में धकेल देना तथा और भी बहुत कुछ जो उन के साथ हो रहा है, वह ! इसी सन्दर्भ में आम्बेडकर ने कहा होगा - ‘‘ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।’’ ये स्थितियाँ निरन्तर बनी हुई हैं, लेकिन इन पर प्राय: वैसा उबाल नहीं आता, जैसा अभी अन्ना के इर्द-गिर्द दिखाई दे रहा है । सप्ताह भर पहले प्रकाशित 2011 की जनगणना की प्रारंभिक रिपोर्ट ने यह बेहद दिल-दहलाऊ तथ्य उजागर किया है :- राष्ट्रीय स्तर पर 0-6 वर्षीय लिगानुपात 13 अंक गिर कर 914 हो गया है-- यानी, पिछले 10 सालों में कन्याओं की हत्या करने में देश और शातिराना तरक्की पर आ गया है । पर, अफसोस कि अब तक इस दर्दनाक और शर्मनाक स्थिति पर कोई राष्ट्रीय क्या, प्रान्तीय या स्थानीय स्तर पर भी चर्चा नहीं हुई । इस के लिए, जिस दिन/सप्ताह को हमें राष्ट्रीय शोक मनाना चाहिए था, उस समय अपने आकाओं के साथ हम विश्वक्रिकेट में जारी भारतीय बढ़त/जीत के बेशर्म उन्माद से ग्रस्त रहे । हमारी सरकार और सम्पूर्ण मीडिया ने घरफूँक मस्ती में आपादमस्तक खुद डूब कर, एक बड़े प्रचार-अभियान के द्वारा हमें भी डुबाए रखा । वह बुखार हम पर से अब भी शायद नहीं उतरा है । एक छोटे से जमीन-खंड (पीच) पर देश के कुछ लोगों की भागदौड़ व ठकठक का कौशल हमारे लिए आधी आबादी ( के व्यक्तित्व-प्राप्ति के सवाल से बढ़ कर, उस ) को अस्तित्व /प्राण-धारण करने तक से वंचित किये जाने के सवाल से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण जब हो जाए, तब कितनी घृणित-कारुणिक हो जाती है हमारी बेहोशी ! अपनी इन्सानियत का कबाड़ा निकाल दिया है हम सब ने ! स्त्री के प्रति भेदभाव और उसे अभाव-ग्रस्त रखने का चरम रूप -- ‘स्त्री का अभाव’ पैदा करते ; उसे विलुप्तप्राय प्रजाति में बदलते ! दोस्तो ! बहनो ! भाइयो ! अब शोक मनाने का समय नहीं है ! इस पर विचार-विमर्श मात्र करने का भी यह समय नहीं है, बल्कि अब कुछ करने का समय है ! ( विचार-विमर्श भी इस देश से कैसा सम्भव है ? इसी तरह का न, कि लड़कियाँ इसी तरह घटती गयीं तो मर्दों को बीवियाँ कहाँ से मिलेंगी ? )

यह समय, इस सवाल पर कई-एक अन्ना या उन के चारो ओर उमड़ रहे लोगों में से से एक-एक आन्दोलित व्यक्ति बनने का है । क्या उम्मीद की जाए कि पुत्र-मोह की सड़ाँध के आदी इस समाज द्वारा चलाये जा रहे कन्याओं के (जन्मपूर्व / जन्म-बाद के) हत्याभियान को रोकने हेतु कोई बड़ा आन्दोलन होगा ? बड़ा न सही, व्यक्तिगत स्तर पर शारीरिक, वाचिक या कम से कम मानसिक सक्रियता ही हम में दिखाई देगी ? क्या इतनी तमीज भी हम(नर-नारियों) में नहीं आएगी ?


(चलते-चलते एक मासूम सवाल और ! महिला-आरक्षण-बिल को पास कराने हेतु इसी तरह कोई अन्ना/अन्नी हम में से निकल कर जन्तर-मन्तर या लालकिले पर कभी दिखाई देगा / देगी ? )

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

शर्म करें और राष्ट्रीय शोक-दिवस मनाएँ

2011 की जनगणना की अभी-अभी प्रकाशित प्रारम्भिक रिपोर्ट ने हमारे स्त्री-पूजक, आत्मवादी व विश्वगुरु (?) देश का घिनौना चेहरा बेनकाब किया है , जो इन 10 सालों में कन्या-वध की ओर और भयंकर रूप से अग्रसर हुआ है । दिल दहला देने वाला तथ्य यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर 0-6 वर्ष के आयु-वर्ग में प्रति 1000 लड़कों पर आज केवल 914 लड़कियाँ बच रही हैं । दस साल पहले (2001) यह संख्या 927 थी, जो 1991 के आकलन (945) से 18 गिर कर हुई थी । यानी, पिछले 20 सालों में 31 की खतरनाक गिरावट ! ये वे बीस साल हैं, जिन में स्त्री-सशक्तीकरण व बालिका-उत्थान के ढेर सारे नारों व कार्यक्रमों का शोर सुनाई पड़ा है, पर नतीजा सामने है । स्पष्ट है कि तमाम सरकारी कार्यक्रम बेटावादी ज़हर से भरी और लड़कियों के हत्याभियान में लगी सामाजिक संरचना को बदलने में बिल्कुल नाकाम रहे हैं । इस विकराल सामाजिक , पारिस्थितिकीय व मानवीय समस्या पर सोचना या संवेदित होना तो जैसे कुछ पेशेवर बुद्धिजीवियों भर का कर्त्तव्य रह गया है ( वह भी अक्सर इस चिन्ता/सोच से प्रेरित हो कर कि मर्दों के लिए कहीं बीवियों का अकाल न हो जाए! (1) वह भी बौद्धिक अय्याशी अधिक ! ) बाकी लोगों को क्रिकेट-विश्वकप में भारतीय विजय के एनेस्थिसिया और सचिन तेन्दुलकर को भारत रत्न बनाने , अभिषेक-ऐश्वर्या जैसी भड़कीली शादियों में खोने , सलमान की मूँछों (दबंग) में उलझे रहने, नज़र-सुरक्षा कवच खरीदने व धार्मिक ठेलमठेल में शरीक होने आदि से फुरसत मिले तब न ! लगता है, नशीली बेशर्मी को ही हम ने अपना राष्ट्रधर्म बना लिया है । दोस्तो ! बहनो! भाइयो! यह वक्त एक नकली युद्ध (मैच) में भारत को विश्व-विजेता बनाने के लिए व्रत रखने या सपनों में खोने का नहीं, बल्कि कन्याओं को मिटाने में खुद लगे रहने या हत्या/हत्यारों के प्रति कम से कम तटस्थ या सहिष्णु बने रहने या ऐसे दाहक सवालों से मुँह मोड़ कर जीने के लिए शर्म करने का है । साथ ही, यह वक्त लिंग-भेद के इस परिदृश्य पर विचार करने का भी है कि देश की लड़कियाँ किसी समय यदि ‘महिला विश्व क्रिकेट’ के फ़ाइनल में भी पहुँची रहती हैं, तो भी वे किसी की ज़ुबान पर, किसी के ज्ञान तक में नहीं रहतीं, जब कि उसी समय पुरुष-क्रिकेट के किसी अदना से मैच में देश की जीत/बढ़त भी संक्रामक चर्चा का विषय बनी रहती है । ऐसे समय में देश के राष्ट्रपति/ प्रधानमन्त्री को चाहिए कि आज के दिन ( 2 अप्रैल) को राष्ट्रीय शोक-दिवस घोषित करें । आइये ! हम आज के विश्वकप फ़ाइनल मैच का बहिष्कार करें और जन्म लेने से वंचित की गयीं व जन्म-बाद उपेक्षा-अभाव से मार डाली गयीं करोड़ों बच्चियों के लिए राष्ट्रीय शोक मनाएँ ! --- रवीन्द्र कुमार पाठक औरंगाबाद,बिहार / 2-04-2011


__________________________________________________________________--

1)

स्त्री को बचना चाहिए इसलिए नहीं कि उसे तुम्हारी प्रेयसी बनना है, उसे तुम्हारी पत्नी बनना है । इसलिए नहीं कि उसे तुम्हारी बहन बनना है। इसलिए भी नहीं कि वह तुम्हारी जननी है और तुम जैसों को आगे भी पैदा करती रहे ! उसे बचना चाहिए, बल्कि उसे बचने का पूरा हक़ है – राजनैतिक हक़, इसलिए कि वह भी तुम्हारी तरह हाड़-माँस की इन्सान है ।

तुम ने उसे देवमन्दिर कहा और बना दिया देवदासी। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते..’ और ‘ कार्येषु दासी शयनेषु रम्भा ‘ को एक साथ तुम्हारा ही पाखण्डी दर्शन साध सकता था ! देवी बनाना या उसे श्रद्धा बताना भी तो अपमान है उस की इन्सानियत का – उस की इच्छा , वासना, भोग-त्यागमय सहज स्पन्दनों का या है उसे जड़ता प्रदान कर देना ,पत्थर में तब्दील कर के। ”

-- रवीन्द्र