जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

रविवार, 17 जुलाई 2011

झाँसी की रानी : अनकही कथा (१८३५-१८५८)

(१) मूढ़ पिता ने एक अधेड़ की सेज हेतु कुर्बान किया । 
छोड़ पढ़ाई - खेलकूद उस ने पतिगृह प्रस्थान किया ॥ 
उस निर्घृण मानव-समाज की मनु शोषित-दुखियारी थी । 
पिंजरे की अब बन कर मैना वह आफत की मारी थी ॥ 
मन में क्रीड़ा की उमंग, रानी का बोझ उठाना था । 
तेरह-वर्षीया को माँ बन जनता को अपनाना था ॥ 
‘देशभक्ति’ को आगे कर जीने का हक भी कुचल दिया 
उस बच्ची का; सोचो, था दुनिया का दिल कितना घटिया ॥ 
तन थक कर था चूर,त्रस्त मन, सबविध विफल जवानी थी। 
खूब सही थी मार वक्त की , जो झाँसी की रानी थी ॥
(२) चित्रा-अर्जुन, शिव-भवानी की उपमा देना ठीक नहीं । 
बाप बराबर वर से बच्ची का रिश्ता क्या रहा सही ? 
गर्भ-भार से लदी अल्प-वय में, पीड़ा वह भारी थी । 
शिशु से राजवंश अँकुरा, खुद छूँछी हो मनु हारी थी ॥ 
गुजरा समय -- वृद्ध राजा को यमपुर से न्यौता आया । 
विधवा के सादे लिबास ने घोंट-घोंट कर तड़पाया ॥ 
रूखी - सूखी दिनचर्या -- राजा का मान बचाना था । 
मन्त्री - कोष - प्रजा - सेना -- सब के ही साथ निभाना था ॥ 
‘जय’ मत बोलो, थोथी जय से क्या होता आराम यहाँ ? 
सपनों से भी वंचित, ‘रानी’ मज़बूरी का नाम यहाँ ॥ 
कल्पित सुख, पर ठोस वेदना से रिसती ज़िन्दगानी थी । 
खूब सही थी मार वक्त की , जो झाँसी की रानी थी ॥

धर्म स्त्री के लिए वेश्यालय है ?

‘धर्म’ को ले कर वैसे तो बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, आध्यात्मिक व्याख्या करते हुए, मानवीय समता व भौतिक सुख के क्षेत्र में भी उस की रचनात्मक भूमिका के बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं, पर अफसोस ! मानव-इतिहास का अधिकतर हिस्सा ऐसे धर्म की मौजूदगी से वंचित रहा है । धर्म का ऐसा चेहरा कभी भूले-भटके धर्म-सुधारकों द्वारा दिखाया भी गया, तो वह बिजली की कौन्ध जैसा ही क्षणिक रहा, जो हर बार अपने पीछे दुनिया में भयानक अन्धकार ही छोड़ कर गया है । इस के तहत, धर्म इन्सान का तथाकथित ईश्वर से सीधे सम्बन्ध का विषय न हो कर एक संस्थागत रूप में मौजूद रहा है , जिस के कारण खुदा और इन्सान के बीच कोई तीसरा (बिचौलिया/दलाल या ठेकेदार) ही बैठा रहा है, जो धर्म की सत्ता चलाता और अधिकतर लोगों के जन्मसिद्ध स्वतन्त्रता व समता के अधिकार को ही नहीं, कभी जीने तक के उन के अधिकार को भी बेरहमी से कुचलते रहा है । यह वैश्विक सच्चाई है, फिर भी खासकर स्त्री के सन्दर्भ में बहुत ज़्यादा सच है ।
आधी आबादी (स्त्री) के लिए तो दुनिया का हर धर्म बेहद क्रूर रहा है । वह मर्दों की खोज रहा है, जिस का खुदा भी अन्तत: मर्द ही है । धर्म का चरित्र पितृसत्तात्मक रहा है । यानी, उस के तहत (भले सभी पुरुषों के लिए न हो, पर) अन्तत: पुरुषों के स्वार्थ, सुख, कल्याण, मुक्ति के लिए ही सारा ताम-झाम है, जिस का साधन बना कर बाकी सब कुछ को लाया गया है । उन में अन्यतम साधन है स्त्री । स्त्री के समग्र व्यक्तित्व को देह-बद्ध कर, उसी पर सभ्यता-संस्कृति के सारे मानक लाद दिये गये -- वह देह पुरुष/पुरुष-सत्ता के मनोविनोद या आकांक्षा-तृप्ति व वंश-वृद्धि के लिए मुकर्रर की गयी । धर्म ही है जिस ने स्त्री की यौन-स्वतन्त्रता छीन कर उसे मर्द-विशेष की सेज की मुफ़्त की वेश्या बना डाला (विवाह-संस्था); साथ ही प्रत्यक्ष वेश्यावृत्ति का भी परोक्ष समर्थन करते रहा । वेश्यावृत्ति से भी गयी-बीती स्थिति बहुपत्नीवाद/बहुगोपिकाएँ, यानी एक ही मर्द के बाड़े में मुर्गियों की तरह बहुत सी स्त्रियों को कैद करने की सामन्ती परम्परा का धर्म ने निरन्तर अनुमोदन किया है । फिर, उसी ने दुनिया के हर देश, समाज व मज़हब के मठ-मन्दिरों की अन्धेरी कोठरियों में देवदासियों के अलग-अलग रूपों में, कमसिन लड़कियों को देवता की सेवा के नाम पर ठूँसा और इस रास्ते पुजारियों और समाज के प्रभावी लोगों (ज़मीन्दारों, मुखियाओं) की हवस की सड़ाँध झेलते रहने हेतु उन बेचारियों को मज़बूर किया । राहुल सांकृत्यायन ने बिल्कुल सही कहा है --
‘‘ यद्यपि धर्म वाले वेश्यालयों का विरोध करते हैं, तो भी उन का विरोध लीपापोती मात्र है । उन में से कितने ही तो पूजा-स्थानों में वेश्याओं का रखना जरूरी समझते हैं और कितनों के स्वर्ग वेश्याओं के बिना सजाए नहीं जा सकते । हूरों-अप्सराओं-देवदासियों की आवश्यकता मानने वाले भला कब वेश्याओं का उन्मूलन कर सकते हैं ? ’’ (--‘साम्यवाद ही क्यों’, १९३४ / पृष्ठ - ४८)
इतिहास में हम देखते हैं कि राजाओं, सामन्तों या धनियों के लिए, खाने-पीने की चीजों की भाँति उन की महफ़िलों या सेजों के लिए नर्तकियाँ / वेश्याएँ / रखैलें भी जरूरी रही हैं । उन की संख्या से राजा/ धनी की ताकत या सामर्थ्य की माप होती रही है । जो जितना बड़ा राजा/धनी, उस के पास उतनी ही बड़ी संख्या में आफ़त की मारी ऐसी स्त्रियाँ , जो उन के धर्म-सम्मत (बहु)विवाहों के अतिरिक्त रही हैं । उन की इस खुली लम्पटता का धर्म की तरफ से सीधे या अनदेखी-रूपी परोक्ष समर्थन रहा है । धर्म धनियों के हाथ का खिलौना रहा है । आज भी शंकराचार्य, पीर आदि के राजसी ठाट-बाट या चोरी-छिपे उन के द्वारा कमसिन स्त्रियों के भोग का इन्तजाम कहाँ से होता है ? उन के आश्रम अवैध कमाई और यौन-शोषित स्त्रियो के अड्डे होते हैं । यह तो आज की बात है, जब धर्म हमारे व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन में बहुत ज़्यादा प्रभावी नहीं रह गया है, क्योंकि हमारे लिए लोकतन्त्र, राजव्यवस्था/सरकार, विज्ञान-सम्मत सेक्यूलर(इहलौकिक) दृष्टि आदि नये नियामक भी हो चुके हैं । यदि धर्म सामाजिक जीवन में फिर से मध्यकाल जितना ही प्रभावी हुआ, तो पुराने ऋषि-मुनियों की परम्परा में फिर से दढ़ियल-कामकुण्ठित-खतरनाक साधु चाहे जिस घर में घुस के लड़कियों/स्त्रियों का यौन-दलन कर के उन्हें गर्भवती बनाने लगेंगे, फिर उस से पैदा नाजायज औलादों को सूर्य, वरुण, इन्द्र, पवन नामक तथाकथित देवताओं के आशीर्वाद बता कर अपने कुकर्मों को ढँकते रहेंगे । कमोबेश आज भी तो वे ऐसा कर ही रहे हैं ।
धर्म ने स्त्री के लिए पातिव्रत्य/सतीत्व यानी पुरुष-विशेष की एकनिष्ठ यौन-दासता का विधान कर उस के लिए फ़्री-सेक्स-सेवा देने की बाध्यता पैदा कर तथाकथित वेश्यावृत्ति के भी कान काट दिये । पति की हर इच्छा, सनक की हद तक बढ़ी उस की हर प्रकार की हवस को पूरी करने हेतु उस के द्वारा स्त्री को प्रेरित किया जाता रहा है । इस्लाम आदि धर्मों में पति के दूसरे-तीसरे-चौथे विवाह को (यानी रोज नयी-नयी सौतों को ) सहर्ष सहते जाने का दबाव ने स्त्री पर डाले रखा है -- उसे स्वर्ग (जन्नत) के प्रलोभन और नरक(दोजख) की आग का डर दिखा कर । पति की वासना-विक्षिप्तता पर उसे कोसने या दण्डित करने की जगह धर्म ने उस की चाह पर पत्नी द्वारा उसे वेश्यागृह तक पहुँचाने तक को सराहा । ऐसी कहानियाँ धार्मिक ग्रन्थों ( पुराणों) में पातिव्रत्य की पराकाष्ठा के रूप में परोसी गयी हैं । स्त्री के यौनांगों और उस के यौन-व्यवहारों पर ही धर्माचार्यों (जो प्राय: पुरुष होते हैं) की आँखें गड़ी रहती हैं और उसी को ले कर वे स्त्री-सम्बन्धी अपने व्यवहार, मन्दिर-मठ-मस्ज़िद-गिरजों के विधि-निषेध / कानून तय करते रहे हैं । वे अपनी जन्मभूमि यानी औरत को ‘मासिक धर्म के कुण्ड’ या ‘योनि’ के सिवा किसी अन्य रूप में पहचानने में असमर्थ हैं, तभी तो इस आधुनिक युग में भी बनने वाले मन्दिरों या धर्मस्थलों के प्रवेश-द्वार पर यह फ़रमान अक्सर लिखा मिल जाता है कि स्त्री इस में पूरी टाँगे ढँकने वाले कपड़े पहन कर ही घुसे या जीन्स आदि कसे कपड़े पहन कर न आये । पर, मज़ा यह है कि वे स्त्री को विशेष इज़्ज़त देने या नारी-पूजा करने की भी बातें कर लेते हैं । यह कौन सा सम्मान है, जो स्त्री को कपड़े पहनने तक की आज़ादी नहीं देता ? वे उसे देवी मानते हैं, पर उन में इतनी तमीज नहीं कि किसी तरह उसे इन्सान मानने को तैयार हो जाएँ । सच तो यह है कि माँ (यानी प्रजनन-मशीन) की महिमा में स्त्री को फुला कर, उस की चेतना को विमूर्च्छित कर, ये धर्म के ठेकेदार धीरे से उस की देह पर हाथ रख देते हैं ।
धर्म ने ही स्त्री को पुरुष की रात की सेज का साथी भर बनाए रखा और दिन में उस की सहकर्मिणी - समान व्यक्तित्वशाली -- हर क्षेत्र में कदम-ताल मिला कर उस के साथ चलने लायक बन ने में बराबर रोड़े अँटकाये हैं । घर व विवाह के पिंजरे में कैद कर, पातिव्रत्य की जंज़ीरों से स्त्री को कस कर उस की श्रमशक्ति, यौनशक्ति व जननशक्ति सब को पुरुष की गिरफ़्त में डाल दिया । साथ ही, उसे दान (कन्यादान) , भेंट और जुए में दाँव तक पर लगाने की वस्तु भी बना दिया । धर्म द्वारा प्रतिपादित आदर्श स्त्री वह है, जो पिता-भाई-पति-पुत्र आदि पुरुषों के हर सुख के वास्ते दिन-रात बैल की तरह खटती रहे और उन के आगे लतखोर बन कर रहे । खासकर अपने पर थोपे गये पति नामक मर्द-विशेष के आगे । उस के थूक-खखार-आँव सब कुछ पीए और मुँह न खोले, कभी कुछ न चाहे । माँ या पत्नी मात्र की भूमिकाओं में स्त्री को सीमित कर धर्म ने उस के परजीवी व गरीब होने का रास्ता चौड़ा किया है, फलत: उस के वेश्या बनने की मज़बूरी भी पैदा होती रही है । चाहे वह कानून-सम्मत (वैवाहिक) वेश्यावृत्ति हो या प्रत्यक्ष वेश्यावृत्ति -- दोनो में उस के लिए रोजी की कोई सम्मानजनक व्यवस्था नहीं है । दोनो जगहों पर पेट के एवज़ में उस की देह ही दाँव पर लगी हुई है । धर्म द्वारा जिस यौन-नैतिकता में स्त्री जकड़ी गयी, उस का अगला परिणाम यही हो सकता था कि पति द्वारा ठुकराई गयी कोई स्त्री , यदि वह जीना चाहे तो उस के लिए अन्तिम शरणस्थली मठ (की धार्मिक वेश्यावृत्ति) या चकला ही रह जाता है । यह ठीक है कि हू-ब-हू ऐसी स्थिति अब नहीं रह गयी है, पर साथ ही यह भी तो देखिये कि वैसा तभी हुआ है, जब हम ने ऐसे धर्म से किसी हद तक तौबा किया है । कोई कहेगा कि ये सब किसी धर्म ने नहीं, समाज-व्यवस्था ने किया है, पर उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि वैसी समाज-व्यवस्था को सम्भव बनाने में धर्म ने कितनी बड़ी भूमिका निभायी है । कुछ नहीं तो, उसे धर्म का अथाह समर्थन तो प्राप्त रहा ही है ।
अब ऐसी स्थिति में आप ही बताइये कि जिस धर्म या धार्मिक परम्परा के सम्मोहन में हम पड़े रहे हैं, वह क्या पवित्र है ? कुछ लोग कहेंगे कि नहीं, धर्म अफ़ीम है । होगा अफ़ीम पुरुषों के लिए, स्त्रियों के लिए तो धर्म वेश्यालय है, वेश्यालय । अब इस में कोई शक नहीं रह जाता कि ऐसे धर्म के ऑक्टोपसी जाल से स्त्री जितना ही मुक्त होगी, उतनी ही मात्रा में अपने कुचले गये मानवाधिकार को प्राप्त कर सकेगी, उतना ही वह इन्सान बन कर उभर सकेगी । --------------------------------------------------

स्वार्थ (कविता)

पुरुषत्व-मोह में अन्धे
या, मर्दानगी के मद से फुफकारते -
पति के कुलनाम की बैसाखी
या उस के वास्तविक (समूचे)
नाम का पूरा-पूरा लिहाफ ही
चाहिए जिसे,
उस बेपहचान-गुमनाम
औरत की दुनिया में
पुरुषों की व्यक्तिगत सफलता या विजय के निनाद
सुनते-सुनते पक गये हैं मेरे कान ।

मुझे सुनाई देता है उन मे
मूक व नासमझ कराह - अवसाद
उन बच्चियों का --
जिन के बॉल-पतंगें, किताब या दूध तक छीन कर
सर्वस्व निछावर किये गये उन के नाकारा-आवारा भाइयों पर ।
ठोंकी गयी उन की पीठ बराबर --
ऋषि-युग से कालिदास, कबीर-तुलसी के युग तक,
प्रसाद-धूमिल से तसलीमा के इस समय तक ।

इतनी बार लगातार जोर-जोर से ठोंकी गयी वह
कि आये दिन
उन में से कोई-न-कोई
बज ही जाता है लाल किला या स्टॉक-एक्सचेंज पर,
चढ़ ही जाता है एवरेस्ट या चाँद पर ।
अन्यथा वे भाई
अण्डरवर्ल्ड के ‘भाई लोग ’ तो बन जाते हैं
सहज ही --
जहाँ उन की बहनों की साँस तक पर पहरे बिठाए गये हों
और उन भाइयों की उद्दण्ड चाहों
की सवारी के लिए ‘बाइक’ दे दिये जाएँ बिन माँगे ही ।

ऐसे समय में
जब सामूहिकता पुंलिंग हुई बैठी है,
किसी समूह-हित में भी
तप गयी, खप गयी या गुम हो गयी
किसी स्त्री का चेहरा धुँधला-सा
कैसे सूरज बन कर उग सकता है
मेरे मन के दिशाकाश में ?
किसी रत्नावली, जीजाबाई, लक्ष्मीबाई
या राखी लिए कलाई खोजती
किसी लड़की को ही देख कर
कैसे जुड़ सकते हैं ये नयन ?

जब औरत की व्यक्तिगत ‘जय’ की बात तो दूर,
उस की ऐसी जयाकांक्षा तक सुनने को
तरस गये हैं मेरे पाँच हज़ार साल पुराने कान ;
रसोईघर की ‘खद-बद’ या बिस्तर की ‘सी-सी’
में जब सुनता हूँ उस का ‘दॅ एण्ड’
तब, सामूहिक / ग्लोबल हो चुके इस समय में
यदि दिखता है कोई पुरुष
‘इन्सान’ होने के लिए ग़ुम हो रहा
या मानव-मुक्ति की बड़ी लड़ाई में विजयी हो रहा,
तो कितना सोना लगता है !
परन्तु , उस से भी अधिक सोना लगता है
किसी लड़की का हॉकी खेलना, गाना,
पढ़ना या तन कर चलना ही शर्म-मुक्त
अथवा पार्क में टहलना
या पसरी रहना ही ।
कितनी सोनी लगती है वह !
जो ‘बाप’ के लिए नोट छापने की मशीन बनने को तैयार, कैरियरनिष्ठ,
विवाह-बाज़ार के बिकाऊ पट्ठों की कतार से
एकदम अलग --
गा रही है, खिलखिला रही है,
चौके-छक्के जमा रही है
अथवा सी.बी.एस.ई.परीक्षा में हर साल अव्वल आ रही है,
(शायद) केवल अपने लिए ।
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