जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

बुधवार, 1 अगस्त 2012




बहुत हो गया रक्षाबन्धन का इमोशनल ड्रामा

इक्का-दुक्का या नये विकसित कतिपय अपवादों को छोड़ दें, तो आमतौर पर रक्षाबन्धन बहन के द्वारा भाई को राखी बाँध कर, अपनी रक्षा का आश्वासन पाने का ऐतिहासिक त्यौहार है । यह भाई-बहन के प्यार का प्रतीक तो कतई नहीं है , बल्कि भाई के आगे बहन की हीन-रक्षणीया छवि को महिमामण्डित करने और इस तरह पितृसत्ता के क्रूर चेहरे को ढँकते हुए, उसे सौम्य रूप में प्रदर्शित करने का ही एक स्त्री-विरोधी प्रतीक है । यह स्त्री के सशक्तिकरण और पुरुष से उस की समता के लिए प्रतिबद्ध भारतीय संविधान का भी खुल्लमखुल्ला , पर सुन्दर मज़ाक है ।  भेदभाव-कारी संस्कृति  के इस अवशेष को आज बाज़ार ने अपने मुनाफ़े के लिए हाथों में उठा रखा है और वह उस पर नित नयी कलई चढ़ाते हुए, मोहक रूप दे कर दिनोंदिन व्यापक बना रहा है । आखिर हम सब के मन में एक छोटा सा सवाल क्यों नहीं जगता कि जब एक भी पर्व/व्रत ऐसा नहीं है, जो पुरुष की तरफ से स्त्री के (किसी सम्बन्ध-रूप माँ, बहन, बेटी, पत्नी/प्रेमिका) लिए आयोजित किया जाता हो, तब राखी जैसे पर्व प्रेम के पर्व कैसे हुए ? प्रेम क्या एकतरफा होता है ? दासत्व को प्रेम समझते रहने की आदत से हम कब बाज आएँगे ? कितना अच्छा नाम दिया - रक्षा-बन्धन ! भाई क्या खा कर बहन की रक्षा करेगा ? बहनों की हर तरह की चाहों, सपनों, उड़ानों या किसी भी मानवीय गतिविधि पर कठोर बन्दिशें लगाने और बुल्डोजर चला देने वाले ( कभी-कभी उन के प्रेम/साथी के चुनाव पर उन की कथित इज़्ज़त-हत्या तक को प्रस्तुत ) भाई भी उन से राखी बँधवाने से बाज नहीं आते । ज़्यादा नहीं तो, बहन को प्राकृतिक हक के रूप में प्राप्य उस (पैतृक ?) सम्पत्ति को तो पहले वे छोड़ें, जिस पर साँप की तरह कुण्डली मार कर वे बैठे हैं । भाई अपनी बहनों से कलाई पर राखी बँधवा कर गौरवान्वित होते हैं (कि मैं इस की रक्षा करने की हैसियत वाला हूँ - मर्द हूँ)  और नाज़ायज तरीके से हड़पे हुए उस के ज़ायज प्राकृतिक हक में से चवन्नी-अठन्नी राखी बाँधने वाले उस के हाथों पर रख कर उन्हें (और अपने को भी) ऐसा भ्रमित करते हैं कि मैं ने इन्हें कुछ दिया । बहनें भी सोचती हैं कि चलो इसी बहाने कुछ तो मिला । सवाल है, किसी बहाने  क्यों मिले कुछ ? घर और घर की सम्पत्ति में भाई के बराबर प्राकृतिक व कानून-सम्मत  पूरा अधिकार ही सीधे-सीधे क्यों न मिले ? लड़कियों की दैहिक, मानसिक व आर्थिक ताकत को तोड़ने में लगे रहे इस समाज ने उन्हें रक्षा के लिए दूसरों का मोहताज बनाए रखने में संस्कृति की परिभाषा देखी है । बावजूद इस के,  यह जरूरी नहीं रहता कि बहन बराबर रक्षा की ही मोहताज हो ।  हद तो तब होती है, जब बहन उस दूधपीते या नाक बहते भाई को भी राखी बाँध कर उस के द्वारा अपनी रक्षा किये जाने के प्रति आश्वस्त होती है, जिस को पाल-पोस कर वह बड़ा करती है । लड़की यदि किरण बेदी जैसी होगी तो भी क्या वही अपनी रक्षा के लिए राखी का धागा लिए किसी मरियल/नाबालिग भाई के भी पीछे दौड़ती फिरेगी ? वह तो खुद जाने कितने मर्दों व औरतों की रक्षा करने की जिम्मेदार होगी । और बड़ा प्रश्न यह भी है कि लड़की/स्त्री को किस से रक्षा चाहिए ? खतरा किस से है ? उस के अधिकार पर ही नहीं, अस्तित्व तक पर खतरा किस ने पैदा कर रखा है ? जिस ( पितृसत्ता - संरचना या उस के धारकों/प्रतिनिधियों ) ने ऐसा कर रखा है, वही साल में एक दिन रक्षक की मुद्रा में आ कर करोड़ों स्त्रियों को इस दिन मोहक छल का शिकार बना जाता है । क्या इस रक्षा-पर्व के दिन भी हज़ारों लड़कियाँ कोख में मारी या सम्पत्ति/मानवाधिकार से बेदखल नहीं की जातीं ? ..........
       
बातें बहुत हैं, पर संक्षेप में यही कहना ठीक है कि अगर हम प्रेम/रक्षा की इस एकतरफा हवाई सांकेतिकता को भाई-बहन की यथार्थ पारस्परिकता में बदलने की कोई सांस्कृतिक प्रक्रिया शुरु कर सकें, तब तो ठीक है, अन्यथा कहना पड़ेगा कि बस करो! बहुत हो गया रक्षाबन्धन का इमोशनल ड्रामा ।