जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

व्याकरण-शिक्षण की समुचित विधि (सारांशिका)


भाषा एक बहु-समर्थ संरचना है, उसी में हमारा सबकुछ व्यक्त होता है।  इन्सान की भाषा सीखने की प्रवृत्ति जन्मजात होती है, जिसके कारण अपने भाषिक समाज में रहते हुए वह भाषा सुनता है, भाषिक प्रयोग देखता है, मन ही मन उनका विश्लेषण करता है और इस तरह से भाषा के नियमों को आत्मसात् करते रहता है। इसी प्रक्रिया से निरन्तर गुजरते, वह नियमबद्ध व्यवहार के रूप में कोई भाषा सीखता है।
कोई भाषा अन्ततः कुछ खास नियमों के अनुसार बनी व्यवस्था है । समेकित रूप में उन नियमों को व्याकरण कहा जाता है । वह ;व्याकरण अव्यक्त / अमूर्त्त होता है, जिसे भाषा के विशेषज्ञ भाषा-विश्लेषण के रूप में व्यक्त / मूर्त्त करते हैं । आमतौर पर उसी मूर्त्त रूप को ‘व्याकरण’ कहा जाता है ।  इस अर्थ में व्याकरण की रचना भाषा-प्रयोगों को समझने और उस के विश्लेषण के रास्ते होता है । भाषा-प्रयोग (वाक्य/प्रोक्ति) के विविध घटकों की अलग-अलग पहचान करना, उन के सम्बन्धों को पहचानना, उन का नामकरण और वर्गीकरण करना - यही व्याकरण-प्रक्रिया है, जिस के परिणामस्वरूप व्याकरण जैसा शास्त्र आकार लेता है । व्याकरण के ज्ञान से भाषा के आन्तरिक रहस्यों का बोध होता है, जिस से भाषाई कौशलों व सृजनशीलता के विकास का अवसर बनता है ।
    व्याकरण-शिक्षण की अब तक प्रचलित रही विधि में न केवल एकमुखी उपदेशात्मकता तथा ऊबाऊपन होता है, बल्कि उस के ज़रिये सीखा गया व्याकरण भी भाषा-प्रयोग के वास्तविक सन्दर्भों से कटा होता है । उस से व्याकरण भाषा में बाहर से ला कर चिपकाया गया लगता है, यानी उस से उपर्युक्त व्याकरण-प्रक्रिया का कुछ भी अता-पता नहीं लगता और उस से व्याकरण भाषा सीखने या भाषिक कौशलों के विकास का साधन न रह कर, खुद ही साध्य हो जाता है । जबकि व्याकरण  सिखलाना लक्ष्य नहीं होना चाहिए ।  लक्ष्य होना चाहिए - भाषा में रुचि जगाना, भाषा सिखलाना या कम से कम भाषा-प्रयोग में दक्ष बनाना ।
    उस की जगह यदि भाषा-प्रयोगों के सन्दर्भ में व्याकरण सिखलाया जाए, तो वह न केवल हमारी मानसिक प्रक्रिया के संगत है, वरन कई प्रकार से लाभकारी भी है । जिस घरेलू/सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और इन सब से निर्मित भाषिक परिवेश में हम रहते हैं, उसी के प्रति सचेत करते, उसी को आधार या उदाहरण बना कर, उस में निहित व्याकरण को समझने की क्षमता विकसित करना व्याकरण-शिक्षण की सही विधि है । उस से - (१) प्रशिक्षु भाषा-विशेष की संरचना समझ सकता है (२) संरचना समझ कर वैसा नया प्रयोग खुद कर सकता है (३) उस संरचना का अतिक्रमण कर के नयी-नयी दिशा में नयी-नयी संरचना उत्पन्न कर,  भाषा को और सृजनशील बना सकता है ।
   सन्दर्भ में व्याकरण सिखलाने से प्रशिक्षु को यह बोध होगा कि कोई भी भाषिक/व्याकरणिक तत्त्व वास्तविक भाषा-प्रयोग के धरातल पर कैसे कार्य करता है ? सन्दर्भ से टकराते भाषा में उस की रुचि जगती या बढ़ती है । सन्दर्भ उस के मन में संस्कार की तरह बैठा होता है, इसी से सन्दर्भ में कुछ भी (व्याकरण) सीखना उस के लिए अलग से अभ्यास-साध्य नहीं रह जाता । जीवित प्रयोगों के सन्दर्भ में व्याकरण को समझना उस की भाषा को जीवन्त व सर्जनात्मक बनाने में मददगार होता है ।
   इस के अलावा, सन्दर्भ में व्याकरण सीखना इसलिए भी उचित है, क्योंकि कोई भी व्याकरणिक परिभाषा या कोटि भाषा-प्रयोग के सन्दर्भ में ही खड़ी होती है, उस के बिना सम्भव ही नहीं है । जैसे - ‘टहलना’ क्रिया है या संज्ञा , इस का पता बिना वाक्य-प्रयोग के नहीं चल सकता । ‘तुम सुबह उठकर फुलवारी में टहलना’ में यदि यह क्रिया है, तो ‘टहलना अच्छा व्यायाम है’ में यह संज्ञा है ।  इसी तरह, भाषा-प्रयोगों के सन्दर्भ में व्याकरण सीखने-सिखलाने के अनेक सैद्धान्तिक व व्यावहारिक लाभ हैं, जो शिक्षण-प्रक्रिया के दौरान प्रकट होते हैं तथा आगे भी कई रूपों में प्रतिफलत होते हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें