जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

बलात्कार से लड़ने के लिए हिम्मत और ईमानदारी चाहिए

पितृसत्तात्मक संस्कृति के अन्तर्गत स्त्री व्यक्ति नहीं; संवेदनाओं, इच्छाओं-सपनों व आत्मसम्मान से भरी इन्सान नहीं, बस एक देह है, जिस का अस्तित्व मर्दों के सुख/मनोरंजन के लिए माना गया है । ऐसी संस्कृति के रहते उस का बलात्कार होना कोई हादसा नहीं, बल्कि वैध व स्वीकृत जीवन-मूल्य की तरह है, जो कभी-कभी नहीं, आये दिन भी नहीं, नियमित रूप से हर कहीं होता है या हो सकता है ।  अगर स्त्री के बलात्कार के विरुद्ध ईमानदारी से लड़ना है, तो सब से पहले हमें अपने सामन्ती संस्कारों एवं अपनी उस संस्कृति से घृणा करने की हिम्मत जुटानी होगी, जिस में जीविका के लिए निकली, राह चलती हर लड़की (गोपी) को कोई बड़े बाप का लड़का (कृष्ण) छेड़छाड़ या यौन-ग्रास का शिकार बना लेना अपना पैदायशी हक समझता है । हम ऐसों को जेल भेजने की जगह, भगवान् मानते हैं, उन की यौन-लंपटता को लीला का दर्जा देते हैं । स्त्री को गोश्त बनाए रखने की सामन्ती संरचना को पूँजीवादी विस्तार देते हुए ( मिसवर्ल्ड, फैशन शो, यौनलोलुपता की छौंक वाले विज्ञापन व आईटम सोंग आदि) मीडिया व मनोरंजन जगत् के कर्त्ता-धर्त्ता जब बलात्कार के विरुद्ध लड़ाई का दम्भ भरते हैं, तो मुझे अचरज नहीं होता, क्योंकि ट्रेन में बेटिकट चलना, दहेज लेना और साथ में अन्ना हजारे का झण्डा भी उठाए चलना हमारा राष्ट्रीय पाखण्ड-चरित्र है । हकीकत तो यह है कि बलात्कार की सबसे ज़्यादा घटनाएँ विवाह/परिवार की सीमा में घटती हैं, जो भारतीय समाज में अब तक किसी विमर्श या लड़ाई में कोई मुद्दा ही नहीं बन सकी हैं । ( हाँ, ‘घरेलू हिंसा कानून २००५’ में पति द्वारा पत्नी पर जबरन यौन-सम्बन्ध थोपने को आपराधिक गतिविधि से जरूर जोड़ा गया है ) ।  पुरुष द्वारा अपनी विवाहिता स्त्री के प्रथम बलात्कार को हमारी परम्परा ने सुहागरात के मनभावन शब्द में ढँक रखा है । आये दिन बलात्कार की शिकार लड़की को उस के बलात्कारी से विवाह के लिए राजी कर मामले का कानूनी निबटारा करने की भी खबरें सुनने में आती हैं । विवाह स्त्री के बलात्कार को वैधता प्रदान करने वाली संस्था बनी हुई है । बलात्कार की मानसिकता जहाँ मर्दानगी के नाना रंग-बिरंगे मिथकों व लोकोक्तियों (जैसे- जमीन-जोरू जोर के, न तो किसी और के ) में आकार पाती हो, वहाँ सिर्फ़ कुछ यौन-पिशाचों को पकड़ कर खत्म कर देना इस विकराल समस्या के अन्त की दिशा में बहुत नाकाफी कदम होगा । फिर भी, एक कायदे का कानून और उसे लागू करने वाली चुस्त-दुरुस्त एजेंसियाँ तो चाहिए ही । कानून की छतरी होगी, तभी तो पीड़िता को उस के नीचे ले जाकर बचाया और अपराधी को दण्डित कराया जा सकता है । पर, समस्या के असली समाधान के लिए संस्कृति के अंग-प्रत्यंग ( साहित्य, लोकाचार, सिनेमा, बाज़ार, समाज/परिवार सब ) में निहित स्त्री को भोज्य पदार्थ की तरह चित्रित करने व परोसने; बेटियों को हर उचित चाह/अधिकार के आयाम में दबा कर रखने तथा अपने राह चलती हर लड़की पर फिकरे कसते अपने मर्द बेटों ( बूढ़ों तक ) को बढ़ावा देने, सहने और कभी-कभी सराहने की प्रवृत्ति से लड़े बिना बलात्कार के कीटाणुओं को पैदा होने से नहीं रोका जा सकता |