जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

मंगलवार, 25 जून 2013

स्त्री-विमर्श की दृष्टि में हिन्दी-व्याकरण की सृष्टि



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यह व्याकरण किस ने बनाया ?




यह व्याकरण किसने बनाया?
(अर्थात लिंग-विमर्श के लिंग-भेद का सांस्कृतिक नेपथ्य)
पर्वत पर्वत है और नदी नदी है। लेकिन जब वे व्याकरण की गिरफ्त में आते हैं, तब पुंलिंग और स्त्रीलिंग बन जाते हैं। इस रिसर्च पेपर के लेखक रवीन्द्र कुमार पाठक का कहना है, भाषा-व्याकरण में 'लिंग' नामक अवधारणा सदियों से समाज में चल रहे स्त्री-पुरुषमूलक विभेद-भावना का ही प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि (जैसा समाज में रहा है, वैसे ही) स्त्रीलिंग पर पुंलिंग का वर्चस्व भी दिखलाती है। हो सकता है कि भाषा से लिंग-भेद मिट जाए, पर अवधारणा के स्तर पर 'व्याकरण' में लिंग मौजूद रहे, जैसा कि अंग्रेजी में है अथवा कुछ नहीं तो वैयाकरण मन में कार्यरत पितृसत्तात्मक मूल्य, उदाहरण देते समय अपना काम करते रहें - स्त्री को हीन रूप में और पुरुष को दबंग रूप में पेश करते हुए। इसलिए कहना होगा कि समाज या भाषा में सुधार चाहे देर से ही हो, किंतु व्याकरण व वैयाकरण को तो अपने स्तर से ऐसे प्रयास शुरू कर देने चाहिए, जिससे लिंग-भेद व पुरुष-वर्चस्व की स्थितियाँ हतोत्साह होती जायें तथा स्त्री- सशक्तीकरण का संदेश अँगड़ाई लेने लगे। 



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