भारत की सांस्कृतिक परम्परा में पर्यावरण-चेतना की बात करने के पूर्व मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस आलेख का उद्देश्य आधुनिक पर्यावरण-विज्ञान का किसी प्रकार से अवमूल्यन करना नहीं है । इस बात को स्वीकार करने में हमें किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए कि अपने विशाल-बहुआयामी रूप में जो पर्यावरण-विद्या आज दिखलाई दे रही है, वह निश्चय ही आधुनिक चिन्ता की देन है, परन्तु इस के पूर्वस्रोतों के रूप में हमारी प्रवाहशील परम्परा में नाना अनुश्रुतियाँ अनायास उपलब्ध होती हैं, जो आज तक के हमारे जीवन को अपनी प्रतिच्छवियों से संसिक्त करती आ रही हैं ।
ऐतिहासिक दृष्टि से ‘पर्यावरण’
शब्द नवगठित है । हम धरतीवासी इन्सानों ने अपने चारो ओर के आवरण-रूप नैसर्गिक सम्पदा-कोश को पर्यावरण कहा है जो हमें जन्मजात-अनायास उपलब्ध है तथा जो हमारे जीवन की उत्पत्ति-स्थिति व संहार का मूल आधार है । इस कोश में मिट्टी-जल-वायु-आकाश-ताप आदि अजैव घटक तथा वनस्पति और स्तनधारियों से ले कर सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवाणुओं तक के जैव घटक आते हैं । इस सब की मात्रा/संख्या के आपसी सन्तुलन का बना रहना प्राणी-जगत् के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त्त है। इस सन्तुलित स्थिति का भंग होना पर्यावरण-प्रदूषण कहलाता है तथा सन्तुलन को बनाए रखने के प्रयास पर्यावरण-संरक्षण कहलाते हैं ।
भारतीय मनीषा में यह बात दीर्घकाल से बैठी हुई है कि हम सब प्रकृति के ही अंग हैं, हमारा शरीर(तन+मन) प्राकृतिक शक्तियों का ही पूँजीभूत रूप है -- ‘यत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे’
(--जो इस शरीर में है,वही तो विशाल पैमाने पर ब्रह्माण्ड में है) । भौतिक स्थितियाँ इन्सान की चेतना का निर्माण या निर्धारण करती हैं । अलग-अलग पर्यावरणीय बुनावट में सभ्यता-संस्कृति के अलग-अलग रंग पैदा होते हैं । व्याकरणिक भाषा में कहें, तो मानवीय(जैव) सभ्यता-संस्कृति का वस्तुत: अधिकरण है पर्यावरण ।
पुराने समय में(कहीं-कहीं आज भी) गाँवों में यदि कोई नया कुआँ बनता था, तो तब तक उस का उपयोग शुरु नहीं होता था, जब तक किसी बरगद-तरु के साथ उस के ब्याह की रस्म पूरी नहीं कर दी जाती थी । ऊपरी तौर पर पितृसत्तात्मक-अन्धविश्वास से सना दिखने वाले इस लोकाचार में भी कुछ सहज बोध कार्यरत था, यह तो मानना ही होगा -- पहली बात तो जल व वनस्पति में चेतना की अनुभूति, दूसरी बात, वनस्पति और जल का परस्पर अन्वयी सम्बन्ध । इन दोनो बातों से आधुनिक पर्यावरण-विदों की लगभग सहमति है ।
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अथर्ववेद’ ने इस भुवन को आच्छादित करने वाले तीन तत्त्व--जल(अप्), वायु और वनस्पति(ओषधि) बतलाये हैं। ७ जल और वनस्पति की सम्बद्धता का एक बड़ा स्रोत हिन्दू-माइथोलॉजी के भूगोल-वर्णन में उपलब्ध होता है, जिस में पृथ्वी की कल्पना सात समुद्रों और और उन में अवस्थित सात द्वीपों में की गयी है । उन सातो द्वीपों के नाम वनस्पतिपरक रहना ( जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप तथा पु्ष्करद्वीप ) ८ हमारे पूर्वजों के जीवन में मौजूद और उन की चेतना में कार्यरत पेड़-पौधों की भूमिका का संकेतक है । प्राचीन भारतीय वाङ्मय -- ‘वैदिक-साहित्य’,‘पुराणों’,‘धर्मशास्त्रों’, ‘रामायण’, ‘महाभारत’, संस्कृत-साहित्य के अन्यान्य ग्रन्थों, पालि-प्राकृत साहित्य आदि की छानबीन करने पर पुरातन भारत की अरण्य-संस्कृति के मनोहर स्वरूप का साक्षात्कार होता है । संस्कृत-नाटकों में राजाओं के अन्त:पुरों से सटे प्रमदवनों की चर्चा बहुतायत से मिलती है, जिन की उचित देखभाल के लिए राज-कर्मचारी नियुक्त रहते थे । कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में अनेक रमणीय उद्यानों का संकेत मिलता है, जो आज के पार्कों के भव्य पूर्वज हैं । नन्दन वन, चैत्ररथ वन, वृन्दावन, पुष्पकरण्डक वन, वैभ्राज वन, काम्यक वन, दण्डकारण्य, अशोकवाटिका आदि अभयारण्यों की नयनाभिराम झाँकी युग-युग तक हमारे चित्त को हरा-भरा बनाती रहेगी ।
वनस्पति-चिन्तन पर्यावरण-विज्ञान का सब से महत्त्वपूर्ण अंश है । धरती पर वनस्पति का उद्भव ( ४० करोड़ साल पूर्व) इंसान के आविर्भाव ( १ लाख वर्ष पूर्व) से काफी पहले की घटना है । पृथ्वी पर पाँच बार जीवन समाप्त हो चुका है, पर वृक्ष लगातार बने रहे हैं । ये वैसे प्राकृतिक घटक हैं, जो अपनी स्वाभाविक प्रक्रियाओं से पारिस्थितिक सन्तुलन को बनाए रखते हैं । ये मिट्टी का कटाव रोकते हैं, पानी को बाँध कर रखते हुए भू-जल के स्तर को धरती की कम गहराई में ही क़ायम रखते हैं, प्रकाश-संश्लेषण द्वारा वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड और ऑक्सीजन का सन्तुलन बनाए रखते हैं, बादलों को आकृष्ट करने व वर्षा कराने के जरिये जलचक्र की पूर्णता में भी इन का अहम योगदान है । ये शोर के प्रदूषण से भी हमें बचाते हैं । इस के अलावा, इन्सान सहित सभी प्राणियों के भोजन की उपलब्धि ये कराते ही हैं, बल्कि विविध जीवधारियों के प्राकृतिक आवास की भी भूमिका निभाते हुए जैव-विविधता को बरकरार रखते हैं । जिस प्रकार जड़ को सींचने से ही तना-शाखा-पत्ती-फूल-फल सब की पुष्टि हो जाती है उसी प्रकार सिर्फ वनों की सुरक्षा और परिवर्धन से पर्यावरण के सारे प्रदूषणों को दूर कर प्राकृतिक सन्तुलन कायम रखा जा सकता है । यह सूक्ष्म और जटिलविज्ञान भले सब के ज्ञान में न हो, परन्तु वृक्ष से अपने अस्तित्व का सम्बद्ध होना निश्चय ही आम जनता के सहज बोध में रहा है । नीम-पीपल आदि वृक्षों को घर-आँगन या आसपास लगा कर हमारी परम्परा ने इसी बात का संकेत दिया है ।
वृक्ष हमारे लिए ज़मीन पर चुपचाप खड़ी रहने वाली हरी चीज कभी नहीं रहे । ये हमारे जीवन में रचे-बसे रहे हैं । हम ने इन्हें अपनी कथा कहानियों, लोक-गाथाओं, लोकगीतों और नाना कलाओं में सँजोये रखा है । भारतीय सभ्यता-संस्कृति का लम्बा दौर निसर्ग की पावन गोद में ही विकसित हुआ है, जिस में शुद्ध वायु, खुले आकाश, अखण्ड हरीतिमा एवं निर्मल जलधारा के सान्निध्य में हमारी चिन्ताधारा को अनुप्राणित करने वाले गौरव-ग्रन्थ रचे गये । इसलिए, यह संयोग भर नहीं है कि भारतीय साहित्य का बड़ा हिस्सा वन-सम्पदा को आलम्बन भाव से चित्रित करता है, चाहे वाल्मीकि, अश्वघोष, व्यास, कालिदास, भारवि, भवभूति, बाणभट्ट की बात करें या हिन्दी के स्वच्छन्दतावादी/छायावादी रचनाकारों की -- सब में प्रकृति एक स्वतन्त्र चेतन अस्तित्व ले कर विद्यमान है । पण्डितराज जगन्नाथ के ग्रन्थ ‘भामिनी विलास’ में वृक्ष के उपकारों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन के स्वर सुने जा सकते हैं । वहाँ कहा गया है कि पेड़ को नमस्कार है, जो फूल-पत्ती व फल का भार उठा कर, धूप की तपन, शीत की पीड़ा सह कर, दूसरों के सुख के लिए अपना शरीर अर्पित कर देता है । ९
पीपल, नीम, सेमल (शाल्मलि), कदम्ब, शिरीष, अशोक, आम, देवदारु, मौलिश्री, जामुन, कहुआ (अर्जुन), पाँकड़ (प्लक्ष/पर्कटी), शीशम, इमली, कचनार (कोविदार), अमलतास, करील आदि के रचनात्मक हस्तक्षेप से हमारी जातीय स्मृतियाँ (शिष्ट व लोक साहित्य) भरी पड़ी हैं । पीपल जैसे गम्भीर पर्यावरण-रक्षक तरु का तो कहना ही क्या ? गौतम बुद्ध के ज्ञान का साक्षी यह बोधिवृक्ष ‘गीता’ में कृष्ण द्वारा उन के अपने स्वरूप की तरह उल्लिखित है -- ‘अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्’
( हे अर्जुन! मैं वृक्षों में पीपल हूँ) । १० फूलों, लताओं या वनस्पतियों के नाम पर इन्सानों और नगरों/नदियों के नाम रहना भी आम चलन सा रहा है -- आम्रपाली, चमेली, चम्पा, आम्रगुप्त, पुष्पपुर, हज़ारीबाग, खेजड़ीली आदि । मध्यप्रदेश के भिण्ड क्षेत्र से पाँच वीं सदी की एक मूर्त्ति मिली है, जिस में सीता अशोक वृक्ष के नीचे शोकाकुल बैठी हुई हैं । कुषाणकालीन मूर्त्तियों में भी वृक्ष दिखलाये गये हैं । साँची के स्तूप (१५० ई.पू.) में भी आम्र-प्रतिमाएँ चित्रित हुई हैं । मूर्त्तिकला के भी पर्यावरण-चेतस् होने की संकेतक हैं ये घटनाएँ । सामन्तयुगीन भारत की चौंसठ कलाओं में से कई का वनस्पति से सीधा सम्बन्ध रहा है । ११
फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) के इस सोहाग-गीत में पेड़ के साथ जन-मन का अटूट रिश्ता तो ध्वनित होता ही है, अपितु जैव-विविधता मे आश्रय-स्थल पेड़/वन के नष्ट होने की चिन्ता भी आकार लेती है । बेटी कहती है -- ‘‘ बाबा! नीम का पेड़ मत काटना , उस में चिड़ियाँ बसती हैं । ’’ १२
पेड़ को मायके का प्रतीक मान कर उस का कहना है कि मुझे दूर देश में मत ब्याहना, अन्यथा यह देश छूट जाएगा । हिन्दी के महान् सर्जक आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने कई ललित निबन्धों का विषय वनस्पति को बना कर उस से अभूतपूर्व मानवतावादी निष्कर्ष निकाले हैं -- ‘अशोक के फूल’, ‘शिरीष के फूल’, ‘देवदारु’, ‘आम फिर बौरा गये’ आदि । ‘साहित्य में हिमालय की परम्परा’ शीर्षक अपने निबन्ध में वे भलीभाँति अहसास कराते हैं कि एक हिमालय के न होने का असर (भारतीय पारिस्थितिकी,अर्थव्यवस्था पर ही नहीं पड़ता, वरन् ) भारतीय साहित्य, संस्कृति, लोक-जीवन, जातीय जीवन आदि को किस हद तक रसहीन बना सकता था ! कालिदास ने हिमालय के ही भव्य चित्रण से अपने काव्य ‘कुमारसम्भवम्’ का प्रारम्भ करते हुए उसे ‘देवतात्मा’, ‘नगाधिराज’(पर्वतों का राजा) तथा पूर्व और पश्चिम समुद्र रूपी पलड़ों को सम्हाले हुए ‘मानदण्ड’ (तराजू की दण्डी) कहा १३ -- मानदण्ड अर्थात् धरती पर विकस रही सभ्यता-संस्कृति की गुणवत्ता का मापक/पैमाना । हिन्दी के मशहूर कहानीकार सुदर्शन ने अपनी कहानी ‘प्रेमतरु’ में बड़े यत्न से लालित-पालित बेरी के एक पेड़ के लिए जान दे देने वाले दम्पति का चित्रण किया है । सभ्यता के लम्बे दौर में पेड़ों से इंसान के सुख-दुखात्मक नानावर्णी रागात्मक सम्बन्ध रहे हैं, जिन के चित्रण, चाहे वे अनगढ़ रूप में हों या कलात्मक, मानव के भावजगत् व साहित्य की अमूल्य थाती हैं । १४ पर्यावरण-रक्षक पेडों की कमी पर हमारे पूर्वज भी कम चिन्तित नहीं होते रहे हैं । रहीम कवि ने कहा था -- ‘
‘
रहिमन वे अब बिरछ कहँ जिन की छाँह गँभीर
बागन बिच-बिच देखियत सेंहुड़ - कंज - करीर ॥ ’’
पुराणों में वृक्षों की महिमा बखानते हुए, उन के रोपने की विधियों, उन के लिए विशेष अनुष्ठानों, उद्यानों व तालाबों के निर्माण की प्रणालियों आदि का विस्तार से वर्णन मिलता है । ‘अग्निपुराण’
में कहा गया है कि जो मनुष्य एक भी वृक्ष की स्थापना करता है, वह तीस हज़ार इन्द्रों के काल तक स्वर्ग में बसता है । जितने ही वृक्षों का रोपण करता है, अपने पहले और पीछे की उतनी ही पीढ़ियों को वह तार देता है । ‘मत्स्यपुराण’ में वृक्ष-महिमा के प्रसंग में यहाँ तक कहा गया है कि दस कुओं के समान एक बावड़ी, दस बावड़ियों के समान एक एक तालाब, दस तालाबों के समान एक पुत्र का महत्त्व है, जब कि दस पुत्रों के समान महत्त्व एक वृक्ष का अकेले है। १५ इस पर यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुति की भाषा भले परलोकवादी-पितृसत्तात्मक सामन्ती फ़्रेम में कसी हुई है, किन्तु पर्यावरण को महत्त्व देने की चेतना कहीं न कहीं इन में समाहित है । ‘अग्निपुराण’ के २८२ वें अध्याय में -- किस ऋतु में कब(सुबह या शाम) पेड़ लगाएँ; किस प्रकार गड्ढा बना कर उस का रोपण करें, किस मौसम में कितनी बार सेचन करें, फूल-फल आदि न लगते हों तो क्या करें ? -- आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है ।
शास्त्र-विहित कर्मकाण्डों में हमारे पूर्वजों ने वनस्पति, नदी और देश-काल की चेतना को स्थान दे कर कुछ तो सन्देश दिया ही है । हर धार्मिक कृत्य का संकल्प-वाक्य चाहे कुछ कहे या न कहे, पर यह जरूर बताता है कि अपने किसी कृत्य के स्थान व समय विशेष को विशाल ब्रह्माण्डीय सन्दर्भ में कैसे संसूचित (लोकेट) करना चाहिए । १६
हर कर्मकाण्ड के लिए इस तरह के संकल्प-वाक्य, हर धार्मिक कृत्य का वनस्पति के किसी न किसी रूप/अंग से सम्बन्ध तथा कर्मकाण्ड हेतु विहित जल में गंगा आदि नदियों व तीर्थस्थलों का आवाहन ! १७ -- आज ये सब कर्मकाण्ड करना कई तरह से भले ग़ैर-जरूरी या तिथिबाह्य (आउट ऑफ़ डेट) हो चुका है, पर ये सब मिल कर प्राचीन भारत के लोक-चित्त में विद्यमान रही किसी व्यापक पर्यावरणीय संवेदना का आभास तो कराते ही हैं ।
पेड़ों को देवताओं के प्रतीक रूप में उपस्थापित कर सश्रद्ध भाव से उन की विधिवत् पूजा-अर्चना तथा सुरक्षा के जो नियम शास्त्रीय व लौकिक परम्परा में प्रतिपादित और कार्यरत रहे हैं, वे पर्यावरण-रक्षक वर्तमान कानूनों के पूर्वज तो कहे ही जा सकते हैं । हिन्दू-कल्पना के नवग्रहों में से हर की कोई न कोई वनस्पति है ।
जैसे- सूर्य की वनस्पति आक है, चन्द्र की पलाश, मंगल की खैर आदि । तुलसी विष्णुप्रिया है, केला वृहस्पति का रूप है, बरगद शिव का निवास है, नीम देवी का वास है, पीपल विष्णु/कृष्ण का प्रतिरूप है -- आदि मान्यताएँ एक प्रकार से इन उपयोगी वनस्पतियों को नष्ट करने को निषिद्ध कर देती हैं । ‘जैन तेरापन्थ’ में तो गुरुदीक्षा के नियमों में से एक है -- हरे पेड़ को न काटना । पृथ्वी, नदियों-सरोवरों, आकाश, वायु आदि को देवत्व प्रदान कर, धरती (व नदियों) को माता १८ (और आकाश को पिता) के रूप में अंगीकार कर भारतीय मनीषा ने जलवायु को प्रदूषण-मुक्त रखने के भाव को भी अमूर्त्त प्रेरणा दी है । वैदिक युग के तैंतीस देवता प्राकृतिक शक्तियों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं । ऋग्वेद का ‘अप् सूक्त’ और अथर्ववेद का ‘भूमिसूक्त’ क्रमश: जल व ज़मीन पर लिखी विश्व की सम्भवत: पहली कविताएँ हैं । वेद कहता है -- ‘‘ वनस्पतिं वन आस्थापयध्वं नि षू दधिध्वम् अखनन्त उत्सम् । ’’ १९ यानी, वनस्पति लगाओ और उसे बचाओ क्योंकि ये जल-स्रोतों की रक्षा करते हैं । पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक, जल और वनस्पति के प्रति हिंसा (प्रदूषण) न करने की हिदायत देता है ‘यजुर्वेद’ -- ‘पृथिवीं मा हिंसी:’ , ‘अन्तरिक्षं मा हिंसी:’ ‘दिवं मा हिंसी:’, ‘मापो हिंसी: मा ओषधीर्हिंसी:’ २० । लोक में चीटियों को गुड़ तथा मछलियों व चिड़ियों को दाना खिलाने और गर्मियों में पशु-पक्षियों के लिए पीने का पानी रख देने की जो सहज प्रवृत्तियाँ प्रचलित रही हैं, वे प्राणी-संरक्षण की चेतना से अनुप्राणित हैं । प्राचीनकाल से ही (वनस्पति) पशु-पक्षियों आदि को देवताओं के साथ जोड़ कर जैव-विविधता को अनायास संरक्षित - संवर्धित किया जा सका था । गरुड़, मोर, सिंह, उल्लू, मगरमच्छ, कछुआ, सर्प, तोता, मूषक आदि को किसी न किसी देवता के वाहन के रूप में कल्पित किया गया और सब से उपयोगी पशु गाय को सर्व-देवमयी कहा गया ; फिर पृथ्वी को गो-रूपा कहा गया । वृक्ष के किसी अंग का उपयोग करने के पूर्व, उस के समक्ष श्रद्धानत हो कर कुछ प्रार्थना, कुछ याचना करने का भाव भी यहाँ खूब रहा है । २१ उन से आज के ‘वृक्ष-जल्लाद’ बहुत कुछ सीख सकते हैं । इस देश में पेड़ों के स्वास्थ्य की चिन्ता भी बलवती रही है, जिस से ‘वृक्षायुर्वेद’ नामक विद्या विकसित हो कर रही । ‘अग्निपुराण’ (२८२ वें अध्याय), ‘बृहत्संहिता’, ‘गरुड़पुराण’ आदि में इस विद्या की चर्चा है । सुबह उठते समय धरती पर पैर रखने मात्र के लिए जो लोग उसे सचेतन सा मानते हुए, क्षमा-याचक मुद्रा में रह सकते हैं, उन से पर्यावरण के किसी प्रदूषण का अपराध हो, यह कल्पना से परे है । २२
ऐसी परम्परा में यह स्वाभाविक है कि प्रकृति पर विजय प्राप्त करने अथवा उस के निर्मम दोहन का भाव यहाँ की एक चिन्तनशील धारा को शुरु से ही अस्वीकार्य रहा है । प्रकृति को जीतने की कल्पना उसी तरह मूर्खतापूर्ण है, जिस प्रकार हाथ द्वारा हृदय व स्नायु-मण्डल को जीतने की कल्पना । यह न समझ कर, केवल भोग या पैसे की अन्धी दौड़ में पड़े प्रकृति का हृदयहीन-असन्तुलित दोहन करते रहें, तो हमारा वही हाल होगा, जो ‘कामायनी’ में देव-सभ्यता का हुआ। देव जाति दिन-रात विलासिता के अतिरेक में डूबी हुई थी -- अपने से ऊपर की सत्ता प्रकृति की सत्ता/ताकत को अनदेखा कर, उसे केवल भोग-सामग्री मान कर उस के साथ ज्यादतियाँ करने से बाज नहीं आ रही थी। परिणामत: विक्षुब्ध हो कर प्रकृति ने वह महाप्रलयकारी दृश्य दिखलाया, जिस में देव-सभ्यता सम्पूर्णत: विलीन हो गयी । कामायनीकार ने ‘चिन्ता’ सर्ग में ऐसे महानाश की कथा कह कर अन्धभोग में निसर्ग के अविवेकी निर्दलन के खिलाफ़ हमें आगाह किया है । २३
निसर्ग की आत्मा को पहचानने वाले महान् सर्जक रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने नदी पर बाँध बनाने के खिलाफ ‘मुक्तधारा’ तथा भू-गर्भ के दोहन के खिलाफ ‘रक्तकरबी’ नामक नाटक और अनेक निबन्ध लिखे थे। पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई रोकने हेतु देशी तरीके से जन-संघर्ष का यहाँ शानदार इतिहास रहा है । १७३१ ई. में राजस्थान में जोधपुर के समीप स्थित खेजड़ीली गाँव में, खेजड़ी वृक्ष को बचाने के लिए बिश्नोई समूह के ३६३ नर-नारियों ने अपने प्राणों की बलि दे दी । पेड़ों से चिपक कर वे उन्हें काटने का विरोध कर रहे थे, जोधपुर-नरेश की ज़ुल्मी कुल्हाड़ियों ने उन्हें बेरहमी से काट डाला था । पर, उन का बलिदान व्यर्थ न गया। बाद में कटाई रोक दी गयी थी। उसी से प्रेरित था टिहरी-गढ़वाल का ‘चिपको आन्दोलन’(१९७२ ई.), जो स्वतन्त्र भारत में पेड़ों को बचाने में ऐतिहासिक सिद्ध हुआ ।
पर्यावरण का विषय केवल प्रदूषण तक सीमित नहीं है । इस का सब से प्राथमिक पहलू प्राकृतिक तत्वों / संसाधनों के स्वत:घटित पारस्परिक सन्तुलन (ऋतचक्र) की रक्षा है । इस के साथ, महत्त्वपूर्ण पहलू उन के स्वामित्व के समतापूर्ण वितरण से जुड़ा हुआ है । नैसर्गिक संसाधनों के संरक्षणार्थ, उन के पुन:चक्रण (रि-साइकलिंग) को बनाए रखने के लिए हमारे देश में मौसम के अनुसार खाद्य-अखाद्य व परिचर्या के विधान तथा फ़सल-चक्र वाली खेती प्रचलित रहे हैं । बंगाल के ‘खनार-बनार’, ‘घाघ-भडली की कहावतें’ आदि दर-असल मिट्टी-जल और सौर ऊर्जा के अन्त:सम्बन्धों पर आधारित उन अनुभवों के संकलन हैं, जिन से खेती का काम सुचारू रूप से हो सकता है । कालिदास का ‘ऋतुसंहार’ (सामन्ती परिवेश में) षड्-ऋतुओं के सन्दर्भ में इन्सानी जीवन की हलचलों और मनुष्य के दिल की धडकनों को निकट से सुनने का जहाँ प्रयास है, वहीं मौसम के अनुसार उस के जीवन के अनुकूलन का भी आख्यान है । हमारे देश में अधिकतर पर्व-त्यौहारों की व्यवस्था ऋतु के अनुसार है । हिन्दी-लोकगीतों के कई रूप -- चैती, कजरी, फ़ाग, सावन-झूला, बारहमासा आदि स्पष्टतया परिवर्तन ऋतु-चक्र के प्रति संचेतना की अभिव्यक्तियाँ हैं । सुबह जगते ही धरती माँ को प्रणाम करना, जीवन-ऊर्जा के मुख्य स्रोत सूर्य को नमस्कार करना तथा नमस्कार-जन्य लाभों को व्यवस्थित ढंग से प्राप्त करने के लिए ‘सूर्य-नमस्कार’ नामक योग-पद्धति की रचना -- ये सब प्रकृति से संपृक्ति की ही हमारी चेष्टाएँ हैं ।
परम्परागत भारतीय चिन्तन हो या जीवन-पद्धति, उन में प्रकृति के प्रति विनयी रहने की जो सीख निहित है, वह सोचने पर गहरे अर्थ में गतिशील दिखता है । वह यह कि हमारे देह-मन-आत्म-मय अस्तित्व (लघु प्रकृति) का उस के मूलाधार ‘बृहत् प्रकृति’ (विश्व प्रकृति) से सतत मधुर सम्बन्ध--संवाद बना रहे, इन के बीच एक संगीत छिड़ता रहे; ताकि हमें अपने अस्तित्व के मूल स्रोत से निरन्तर ऊर्जा मिलती रहे । ‘‘सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ही कुटुम्ब है, यहाँ किसी का अलग अस्तित्व नहीं है’’ --
भारतवर्ष की मुख्यधारा की यह निष्पत्ति अपने-आप में पर्यावरण-सुरक्षा का मूल सूत्र समेटे हुई है । प्राकृतिक तन्त्रों का संरक्षण और उन के बीच सन्तुलन स्थापित रखने का आशय यह है कि उन का उपयोग इस तरह हो, जिस से उन के मूल रूप में कम से कम परिवर्तन हो, जिस से आसान पुन:चक्रण (रि-साइकलिंग) द्वारा आसानी से उन की क्षति-पूर्त्ति होती रहे और प्राकृतिक संसाधन यथासम्भव अपने मूल रूप में बरकरार रहें । यह तब संभव है, जब हम लालच से रहित हो कर प्रकृति की उदारता का उपयोग/उपभोग करें, जिस की प्रेरणा ‘ईशावास्योपनिषद्‘ का प्रथम मन्त्र दे रहा है --‘‘ इस संसार में जो कुछ है, वह सब ईश्वर से व्याप्त या ईश्वर का आवास है, इसलिए उन का उपभोग करना हो तो बिना उन में आसक्ति रखे, त्याग-भाव से उपभोग करें, कारण यह धन है किस का ? अर्थात्, किसी एक का तो है नहीं । ’’ २४ इस सन्दर्भ में गाँधी जी ने भी कहा था -- ‘‘ प्रकृति के भण्डार में हर किसी की जरूरतें पूरा करने को यथेष्ट संसाधन हैं, पर किसी भी लालच को पूरा करने में यह भण्डार असमर्थ है । ’’ ‘यजुर्वेद’ में प्रतिपादित भोजन का यह दर्शन समग्र पर्यावरण-चिन्ता तथा विवेकपूर्ण भोग-दृष्टि का सुन्दर निदर्शन है -- ‘‘ नदियाँ बहती रहें, बादल बरसते रहें, वनस्पतियाँ फूलती-फलती रहें और हम उन से प्राप्त अन्न-फल आदि को सिद्धिप्रद मान कर पवित्र मन से ग्रहण करते रहें । ’’ २५ कितनी सही है यह जीवन-दृष्टि ! पर्यावरण के हर अंग की स्वच्छता तथा सब के बीच सौमनस्य बनाए रखने के लिए सदा सचेष्ट रहने वाली मानसिकता से ही कभी यह मन्त्र सृजित हुआ होगा, जो आज तक किन्हीं लोगों की नित्य-प्रार्थना या कर्मकाण्ड का अंग बना हुआ है --
‘‘
द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्तिर्वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वं शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि । ’’ २६
--
अर्थात्, द्युलोक (आकाश), अन्तरिक्ष, पृथ्वी -- सब में शान्ति विराजे । सभी देवता, यानी प्राकृतिक शक्तियाँ शान्तिमय हों । सब की अलग-अलग शान्ति एक महाशान्ति की रचना करे, जिस से हमारे जीवन में शान्ति-समृद्धि बनी रहे ।
यहाँ शान्ति का अर्थ है संतुलन, जो नैसर्गिक तौर पर सहज सिद्ध है , पर हमारे जीवन-कर्मों से प्रकृति में जो विकृति / विशृंखलता आती रहती है, उस से विषमता पैदा हो जाती है, जिस से यह शान्ति छिन जाती है । तब, विषमता के निराकरण यानी विशृंखलताओं में समीकरण के बाद ही फिर से यह उपलब्ध हो पाती है । शान्ति में सुषमा है । सुषमा यानी ‘सु’(
अच्छी तरह से बनी) ‘सम’ (सन्तुलन) की अवस्था, इसी में जीवन का सौन्दर्य है । उक्त मन्त्र सन्तुलित पर्यावरण के लिए संवेदित प्राचीन मनीषा का अन्यतम उदाहरण है ।
इस प्रकार, स्पष्ट है कि जीवन के आधारभूत तत्त्व के रूप में प्रकृति या पर्यावरण को समझने, उसे स्वीकारने, उस के प्रति संवेदनशील बने रहने का सशक्त-व्यापक भाव भारत के पुराने-नये तमाम सांस्कृतिक स्रोतों से छन कर आकार लेता है । आधुनिकता की किसी खण्डित दृष्टि से ग्रस्त हो कर, इस से अनजान बने रहना हमारी भूल है, परन्तु उस से भी बड़ी भूल हम तब कर बैठते हैं, जब इस परम्परागत पर्यावरण-चेतना / दर्शन को हम आधुनिक पर्यावरण-विज्ञान का विकल्प अथवा उस से भी बढ़ कर मान बैठते हैं तथा उसी के बहाने कभी-कभी तत्कालीन पिछड़ी (या अमानवीय रही) समाज-व्यवस्था का सपना भी परोसने लगते हैं । वह होती है हमारी कूपमण्डूकता, अतीत-मग्न हमारी मोहनिद्रा और हमारा विकलांग संस्कृति-बोध । हमें सिर्फ़ इतना समझना चाहिए कि यदि हम अपने पारिस्थितिक असन्तुलन को ले कर चिन्ता / चिन्तन - रत एवं क्रियाशील होते हैं, तो पर्यावरण-संचेतना की ये देशी जड़ें हमारी मति व कृति को किसी हद तक परिष्कृत और टिकाऊ बनाने में निश्चय ही मददगार साबित होती हैं । जरूरत है इन्हें परख कर देखने की ।
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सन्दर्भ
:--
१
) ‘" तम: प्रधानविक्षेप शक्तिमदज्ञानोपहितचैतन्यादाकाश--आकाशाद्
वायु
:वायोरग्निरग्नेरापोद्भ्य: पृथिवीचोत्पद्यते।’’--‘वेदान्तसार’,सृष्टिक्रम(-सदानन्द योगीन्द्र) २) ‘ ‘ इस में कोई सन्देह नहीं हो सकता कि आरम्भ में भौतिक जगत् की शक्तियों की पूजा होती थी, जैसे सूर्य, चन्द्रमा, द्यौ और पृथ्वी, वायु, वर्षा और आँधी की, पवित्र नदियों की तथा अनेक देवों की, जो प्रकृति की क्रियाओं का अधिष्ठातृत्व करते हैं ।.....सभी देशों में इन देवताओं ने एक उच्चतर आन्तरिक या आध्यात्मिक व्यापार ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था । ..... सरस्वती एक नदी-देवता, भारत में ज्ञान, विद्या, कला और कौशल की देवी हो जाती है ।’’
-- ‘
वेद-रहस्य’ (- श्री अरविन्द)
३
) ‘‘ भौतिक राष्ट्रों की माताएँ नदियाँ हैं और पर्वत पिता । पिता निश्चेष्ट, निर्बन्ध और चिन्तामुक्त, निर्द्वन्द्व पुरुष है । नदियाँ सचेष्ट, गतिशील, मुक्तिदात्री एवं रसवती सरस्वती हैं । शून्य में स्वच्छन्द विचरण करने वाला मेघ जब क्षितिज की शय्या पर हलचल मचा कर रिक्त हो जाते हैं, तब माता पृथ्वी उस तेजोद्दीप्त जीवन-पुष्प को सरितन्तुओं के द्वारा धारण करती हैं । ....ये सरिताएँ ही पृथ्वी में प्रजनन की गति तथा शक्ति भरती हैं । माता पृथ्वी के शरीर में शिराओं का काम ये सरिताएँ ही करती हैं, जिस से रसमयी धरित्री पर जड़-जंगम की सृष्टि निरन्तर उभरती, चलती तथा मिटती रहती है ।’’
--
‘बिहार की नदियाँ’ - ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सर्वेक्षण’,१९७७(-हवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’ )
४
) ‘‘ मेघैर्मेदुरमम्बरंवनभुव: श्यामास्तमालद्रुमै:
नक्तंभीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय ।
’’
-- ‘
गीतगोविन्द’ (- जयदेव १,१)
५
) ‘‘ हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह ।
एक पुरुष भींगे नयनों से देख रहा था प्रलय
-प्रवाह ॥’’
-- ‘
कामायनी’,‘चिन्ता’ सर्ग ।
६
) आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को दिनांक १३-०६-१९४२ को लिखे पत्र में संस्कृत-साहित्य में उल्लिखित, नदियों के निम्न प्रकार के माहात्म्य बतलाये थे --
(
क) काव्यों में -- सौन्दर्य की दृष्टि से
(
ख) पुराणों में -- पुण्य की दृष्टि से
(
ग) आयुर्वेदिक ग्रन्थों में -- स्वास्थ्य की दृष्टि से
(
घ) ज्योतिष-ग्रन्थों में -- उन के बहाव आदि पर से शुभाशुभ फल की दृष्टि से
(
ङ) फुटकल ।
७
.) ‘‘ त्रीणि छन्दान्सि कवयो वि येतिरे पुरुरूपं दर्शनं विश्वचक्षणम्
आपो वाता ओषधय
: तान्येकस्मिन् भुवन आर्पितानि ॥ ’’---(‘अथर्ववेद’-१८-१-१७)
८
) ‘‘ जम्बूप्लक्षाह्वयौ द्वीपौ शाल्मलश्चापरोद्विज
कुशक्रौञ्चस्तथाशाक
:पुष्करश्चैव सप्तम:॥’’---‘विष्णुपुराण’,२-२-५
९
) श्रीमद् भगवद्गीता, १०-२६
१०
) इसी तरह,
पिबन्ति नद्य
: स्वयमेव नाम्भ: स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा:
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहा
: परोपकाराय सतां विभूतय: ॥
११
) ‘पुष्पास्तरण’ (फूलों से घर सजाना,फूलों की शय्या बिछाना), ‘माल्यग्रथनविकल्पा:’ (विविध प्रकार की मालाएँ गूँथना), ‘वृक्षायुर्वेदयोगा:’ (वृक्ष-लतादि की चिकित्सा, इच्छानुसार उन की काट-छाँट करना आदि) तथा ‘पुष्पशकटिका’ (फूलों की गाड़ी बनाना) । --- ‘कामसूत्र’, ३-६४
१२
) ‘‘ बाबा ! निमिया कै पेड़ जनि काटेऊ,
निमिया चिरैया बसेर
, बलैया लेहु बीरन की ।
बाबा
! पीपरा कै पेड़ जनि काटेऊ,
पिपरा चिरैया बसेर
, बलैया लेहु बीरन की ।
बाबा
! दुरि देस जनि ब्याहेऊ,
छुटि जैहैं बाबुल केर देस
,बलैया लेहु बीरन की । ’’
१३
) ‘‘ अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयोनाम नगाधिराज:
पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्यस्थित
: पृथिव्यामिव मानदण्ड : ॥
--‘
कुमारसम्भवम्’, १-१
१४
) निम्न कविता में ऐसी ही कुछ संवेदनाएँ महसूस की जा सकती हैं --
उस वृक्ष को किस ने गिराया इस भरे मधुमास में
?
जो मुक्त मन से सुरभि का वर्षण सदा करता रहा
,
जो ताप
-व्याकुल प्राणियों को वरद छाया से नहा ,
फूला समाता था न खग को दे बसेरा पास में । उस वृक्ष
....
जिस की शरण में कई आये छोड़ गृह बैराग से
,
जिस के तले दो दिल धड़कते भर प्रथम अनुराग से
,
हर साँझ विकल बना रहा शिशु
-आगमन की आस में । उस वृक्ष....
जिस ने सहा कई बार पावस की रसीली मार को
,
पुलकित हुआ ले कर वनानी के वसन्ती भार को
,
साथी रहा हर बार भू के तापमय उच्छ्वास में । उस वृक्ष
....
हा
! हृदय-धन वह लुट गया ,वह कौन सा षड्यंत्र था ?
मरुभूमि मधुवन को बनाया
, कौन मारण-मन्त्र था ?
अब किसे अपनी बात कह हल्का करूँ जी त्रास में
? उस वृक्ष....
(-
रवीन्द्र कुमार पाठक)
१५
) ‘आरामं कारयेत् यस्तु नन्दने सुचिरं वसेत्’--‘अग्निपुराण’,६६-२९
‘
पापनाश: परासिद्धि: वृक्षारामप्रतिष्ठया’ -- ‘अग्निपुराण’,७०-८
‘
दशकूप-समा वापी दशवापी-समो हृद:
दशहृद
-समो पुत्र: दशपुत्र-समो द्रुम:। ’’ -- ‘मत्स्यपुराण
१६
) संकल्प कुछ इस प्रकार किया जाता है --
हरि
: ॐ तत्सत् ब्रह्मण: द्वितीय परार्द्धे श्रीश्वेतवाराह कल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशशततमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते....क्षेत्रे....नामके ग्रामे/नगरे मासोत्तमे....मासे....शुक्लपक्षे ....तिथौ....वासरे.......कर्ममहम्(कर्मं कर्तुम् संकल्पमहम्) करिष्ये ।
१७
) ‘‘ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती
नर्मदे सिन्धु
-कावेरि जलेस्मिन् सन्निधिं कुरु ।’’
१८
) ‘‘भूमि: माता पुत्रोहम् पृथिव्या: ’’-- यह धरती माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ । ( पुत्र शब्द का प्रयोग पितृसत्तात्मक समाज-संरचना के कारण हुआ है । ) ‘‘ धरती मेरी माता पिता आसमान’’ - फ़िल्म ‘गीत गाता चल’ (१९७५ ई.) का गीत ।
१९
) ऋग्वेद , १०-१०१-१०
२०
.) यजुर्वेद के क्रमश: १३-१८, १४-१२, १५-६४ तथा ६-२२ से ।
२१
) आयुर्बलं यशोवर्च: प्रजापशुवसूनि च
ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते
! --
---‘
कात्यायनस्मृति’,१४-४ / ‘गर्गसंहिता’,विज्ञानखण्ड,अ.७
२२
) समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले !
विष्णुपत्नि
! नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ॥
२३
) ‘‘ आकर्षण से भरा विश्व यह केवल भोग्य हमारा,
जीवन के दोनो कूलों में बहे वासना
-धारा ॥ ’’
--‘
कामायनी’,‘कर्म’सर्ग।
‘‘
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित् हम सब थे भूले मद में,
भोले थे
, हाँ तिरते केवल सब विलासिता के नद में ॥.......
शक्ति रही
, हाँ शक्ति, प्रकृति थी पद-तल में विनम्र-विश्रान्त ।
कँपती धरणी
, उन चरणों पर हो कर प्रतिदिन ही आक्रान्त ॥
स्वयं देव थे हम सब तो फिर क्यों न विशृंखल होती सृष्टि
,
अरे इसी से हुई अचानक कड़ी आपदाओं की वृष्टि ॥
.......
भरी वासना
-सरिता का वह कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय
-जलधि में संगम जिस का देख हृदय था उठा कराह ॥’’
२४
) ‘‘ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा
: मा गृध: कस्यस्विद्धनम् ॥ ’’
२५
) ‘‘ यन्तु नद्य: वर्षन्तु पर्जन्या: सुपिप्पला ओषधय:भवन्तु ।
अन्नवतामोदनवतामामिक्षवताम् । एषां राजा भूयासम्
ओदनमुद्ब्रुवते परमेष्ठी वा एष
: यदोदन: परमामेवैनं
श्रियं गमयति ॥
’’
२६
) यजुर्वेद, शान्तिपाठ,३६-१०
००
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रवीन्द्र कुमार पाठक
व्याख्याता, हिन्दी-विभाग,
गणेशलाल अग्रवाल कॉलेज,
मेदिनीनगर(डाल्टनगंज). झारखण्ड- ८२२१०२
दूरभाष - ०९८०१०९१६८२. ई.मेल. rkpathakaubr@gmail.com
ब्लॉग : http:// RAVINDRA KUMAR PATHAK.blogspot.com