कुपथ-कुपथ रथ दौड़ाता जो पथ-निर्देशक वह है, लाज लजाती जिस की कृति से धृति-उपदेशक वह है ।मूर्त्त दम्भ गढ़ने उठता है शील-विनय परिभाषा,
मरण-रक्त मुख से देता जन को जीवन की आशा ।
जनता धरती पर बैठी है, नभ में मंच खड़ा है,
जो जितना है दूर मही से उतना वही बड़ा है ।
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ऊपर-ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं,
कहते ‘ऐसे ही जीते हैं’ जो जीने वाले हैं ।
कलरव करने वाले पंछी, पत्तों वाली डाली,
उन्हें कहाँ ठण्डक मिलती है, इन्हें कहाँ हरियाली ?
(‘मेघगीत’ से)
इन धारदार पंक्तियों के रचनाकार आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री अब हमारे बीच नहीं रहे, यह खबर मेरे अन्तर के एक कोने को कुछ अजीब सी रिक्तता का अहसास करा रही है ।
आचार्य जी कई दशकों से मौनभाव से सक्रिय थे तथा ९५ साल की भरी-पूरी साहित्यिक/इन्सानी ज़िन्दगी जी कर, बहुत कुछ दे कर, हमें छोड़ कर चुपचाप चले गये । मुझे जो कुछ मालूम है, उस के अनुसार वे समाज के अभावग्रस्त-निम्नवर्ग के प्रति सदैव सक्रिय-सहानुभूतिशील रहे । पशु-पंछियों के प्रति बेहद लगाव रखते हुए एक तरह से उन्हीं से अपना घर बसाए रखा । ये बातें महादेवी वर्मा से उन्हें जोड़ती हैं । उन का जाना (हिन्दी-) साहित्य-संसार की एक समृद्ध व दीर्घकालव्यापी परम्परा के साथ एक युग का भी अन्त है । वे कवि के रूप में अधिक ख्यात रहे, पर वे उस से काफी अधिक थे । उन के कवि-रूप पर विचार करें , तो वे छायावाद की आखिरी कड़ी थे, जो उत्तरछायावाद के प्रवर्तक भी कहे जाते हैं । उन्हों ने हिन्दी ही नहीं, संस्कृत के भी गीतिकाव्य को नवस्पन्दन प्रदान किया । यह दुर्लभ घटना है । शुरुआती दौर में, संस्कृत-गीतिकाव्य ‘काकली’ ने उन की अलग पहचान बनायी थी । वे निराला को अपना साहित्यिक आराध्य मानते थे तथा उन के व्यक्तित्व व सर्जना से निरन्तर अनुप्राणित होते रहे । ( विदित हो कि अपने मुज़फ़्फ़रपुर के घर को उन्हों ने ‘निराला-निकेतन’ नाम दे रखा था । ) अपने साहित्यिक आराध्य की तरह ही उन में संवेदना और किसी सीमा तक भाषा का भी वैविध्य रहा है । ( एक उदाहरण देने की इच्छा है - एक तरफ वे संस्कृतनिष्ठ सर्जना के धनी रहे, तो दूसरी तरफ ऐसे ठेठ प्रयोग भी करते थे -- ‘‘वह है सुकनी और सनीचरी, एतवरिया-सोमरिया । भीड़ लगाए खड़ी हुई मेहरारू करिया-करिया’’ ) साथ ही, विधागत विविधता की दृष्टि से भी उन का शब्द-संसार काफी समृद्ध रहा है । काव्य(महाकाव्य,गीतिकाव्य,गीत-ग़ज़ल), गीतिनाट्य, नाटक, आलोचना, निबन्ध, कहानी, उपन्यास, संस्मरण-आत्मकथा, पत्रिका-सम्पादन आदि से वह भरा पड़ा है । पर, जो बात असाधारण है, हिन्दी-रचनाशीलता/लेखन में जिस की आज बड़ी तेजी से कमी होती जा रही है तथा जिस के लिए उन का वास्तविक अभाव महसूस किया जाना चाहिए, वह है परम्परा का उन का गहरा बोध तथा उस के समकालीन पुन:सर्जन की क्षमता । यह बात मैं उन के ‘कालिदास’ नामक उपन्यास के अपने पठनानुभव के आधार पर कह सकता हूँ ।
उक्त कृति एक रचनाकार द्वारा भारत के एक क्लैसिकल रचनाकार को (उस के जीवन-दर्शन व साहित्य-दर्शन को ) समझने की शानदार कोशिश है, जिस की रचना-प्रक्रिया में उन के विलक्षण परिश्रम, सदसत्-विवेक व भव्य-अपूर्व कल्पना के साथ, लोकहितकारी व्यापक सौन्दर्य-दृष्टि का मणि-कांचन संयोग झलकता है । उन के द्वारा, कालिदास को फटेहाल-अभावग्रस्त, कथित निम्नजातीय समूह के दु:ख-दर्द से भी इन्सानी जीवन व कविता के लिए संवेदनाएँ ग्रहण करते दिखाना अपने आप में असमानान्तर-उदात्त कल्पना है । यह उपन्यास अभिज्ञानशाकुन्तलम्-मेघदूत-ऋतुसंहार-रघुवंश-कुमारसम्भव के बोध के ज़रिये हमारे भीतर धुँधले-से आकारवान् कवि कालिदास को ज़मीनी स्पष्टता प्रदान करता है । यहाँ ज़मीन से दुहरा आशय है --: (१) कालिदास के बहु-आभासित रोमैण्टिक व्यक्तित्व को लोक-जीवन का संस्पर्श देने का उपयोगी कार्य शास्त्री जी ने किया है । (२) जिस कालिदास का व्यक्तित्व किंवदन्तियों-दन्तकथाओं के घटाटोप में, साहित्यालोचकों-बौद्धिकों के बीच आज तक काल व देश के पेण्डुलम पर झूलते रहा है, उसे एक विश्वसनीय कथाभूमि पर देशकाल की पूरी प्रामाणिकता के साथ पुनराविष्कृत करने का दु:साध्य-साधन शास्त्री जी ने अपने जीवन के आठवें दशक में कर के हमें विस्मित किया है । पर, कैसी विडम्बना है कि इस मूल्यवान् व सुफल प्रयास की हिन्दी/संस्कृत-आलोचना ने कोई नोटिस तक न ली । इसी तरह, उन के महाकाव्यात्मक गीत-काव्य ‘राधा’ (७ खण्ड) की भी चर्चा न हुई, जिस ने इस जल्दबाज -क्षणजीवी समकाल में महाकाव्यात्मक औदात्य को इत्मीनान से सिरजा । इस के ज़रिये उन्हों ने जयदेव व सूरदास की परम्परा को पुनर्जीवित किया है, नवाकार भी दिया है । पर, कितना व किस रूप में ? -- यह आकलन करना अभी शेष है । कुल मिला कर, उन के जीवन व सृजनलोक में कई कीमती असाधारणताएँ रही हैं, जिन का उचित मूल्यांकन क्या, अवलोकन तक नहीं हुआ है।
शास्त्री जी वर्षों से हमारे बीच कुछ इस तरह थे कि उन का होना न होने के बराबर रह गया था, पर इस के पीछे उन की सर्जनात्मक मन्दता (जो उम्र-जनित थी) को उतना बड़ा कारण नहीं कहा जा सकता, जितना उन के प्रति हमारे उपेक्षा-भाव को । यह भाव निश्चित रूप से हमारी मीडिया-उन्मुख वर्तमान हवाई बोध(ग्रहणशीलता) की देन है, जो एक पीच पर कुछ लोगों की भागदौड़ (मैच) या किसी चमकीली/भड़कीली शादी को ब्रह्माण्डव्यापी समकालीन सच के रूप में बेशर्मी से महसूस करता-कराता है, पर बगल में हो रही लाखों जनों की भुखमरी, करोड़ों बच्चियों की गर्भ में ही हो रही हत्या/दहेज-हत्या या ओजोन-परत तक में छेद होने को बदतमीजी से नज़र-अन्दाज करता-कराता है । खैर ! शास्त्री जी की उपेक्षा का एक कारण हमारी बौद्धिकता अवश्य खोज लेगी -- समकालीन या किसी बड़ी प्रगतिशील या लोकप्रिय हलचल में उन का शरीक न होना ! पता नहीं, यह कितना सच है । पर, उन को अनदेखा करते जाने का यही एक कारण नहीं है, हम सब जानते हैं । आखिर आसाराम,मोरारी बापू,साईंबाबा अथवा हमारे नेता ही कौन सी प्रगतिशीलता पेश कर रहे हैं ? बात घूम-फिर कर सत्ता पर आती है, वह चाहे राजसत्ता हो, धर्मसत्ता या अर्थसत्ता ! उस से बिना सम्पृक्त हुए आप कुछ भी नहीं हैं । यह केवल जानकीवल्लभ शास्त्री का नहीं, बहुतेरे सरस्वती-साधकों या जन-सेवकों का सच है ।
जो हो, शास्त्री जी चिर-उपेक्षित रचनाकार रहे हैं । रचना के अनुपात में उन का बहुत कम मोल आँका गया है । कम से कम ‘कालिदास’ के लिए वे ज्ञानपीठ पुरस्कार से कम के हक़दार नहीं थे । पर, वह उन्हें मिलने वाला न था, यह बात हम रवीन्द्र कालिया(ओं) के आज के (अ)ज्ञानपीठ /ठों के ज़रिये नहीं, बल्कि पहले के (अ)ज्ञानपीठ /ठों को देख कर भी भली-भाँति समझ सकते हैं । जहाँ तक मुझे पता है, साहित्यिक अवदान के लिए अन्तिम बार वे तब चर्चा में आये थे, जब उत्तरप्रदेश सरकार का ‘भारत-भारती सम्मान’ (२००१) उन्हें मिला था । किसी गुणग्राही की नज़र पड़ गयी होगी । वैसे पुरस्कार/सम्मान के लिए हाय-तौबा मचाने वालों में वे बिल्कुल न थे । अन्यथा, भारत-सरकार द्वारा १९९४ व २०१० में प्रदान किये जा रहे ‘पद्मश्री’ को अस्वीकार न करते । अपनी उपेक्षा को ले कर भी उन्हें किसी से शिकायत न थी, बल्कि स्वयं को प्राप्त सम्मानों को ले कर वे संतुष्ट थे, जैसा कि ‘कालिदास’ की भूमिका में उन्हों ने स्वीकारा है ।
अफ़सोस है कि शास्त्री जी को मैं ने बहुत ज़्यादा नहीं पढ़ा है । मेरा उन से पहला परिचय ‘मेघगीत’ की उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से हुआ था और उन की तमाम रचनात्मक उपलब्धियों के बावजूद मैं उन्हें इन्हीं पंक्तियों के सर्जक के रूप में याद करते हुए श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ । आमजन के हित के प्रति निरपेक्ष ही नहीं, बल्कि उस की हत्या करने वाली -- देश की मौजूदा राजनैतिक-संवैधानिक-प्रशासनिक-न्यायिक विसंगतियों/पाखण्डों पर ये मार्मिक टिप्पणी हैं । विनायक सेन जैसे असली भारत-रत्नों को जेल देने वाली व्यवस्था और सचिन जैसों को भारत-रत्न देने के लिए पगलायी अन्धी भीड़ जब तक हमारे देश का राष्ट्रीय चरित्र रहेंगी, ये पंक्तियाँ अर्थवान् रहेंगी । पर, ये पंक्तियाँ मुकाम नहीं, एक शुरुआत हैं, ये तब जा कर पूरी/कृतार्थ होंगी जब सामाजिक स्वतन्त्रता के अहम सवाल को भी ये दिशा देने लग जाएँ, उन में भी सब से अहम स्त्री-मुक्ति के प्रश्न, उसे जन्म लेने तक के अधिकार से वंचित किये जाने के प्रश्न को ।
आचार्य जी का निधन एक साथ कई सवाल छोड़ गया है । इस के कारण मै अपने हृदय के एक खाली हुए कोने तक फिर से आता हूँ -- उस के लिए मुझे तर्क से अधिक संवेदना की जरूरत है । यद्यपि मैं ईश्वरवादी नहीं हूँ, मुझे ईश्वर की जरूरत भी नहीं है ,पर उपमान के लिए मुझे उसे कष्ट देना पड़ रहा है । शास्त्री जी ने कहीं, किसी आलोचना में लिखा था -- दुनिया का सब से पहला नास्तिक वही होगा, जिस ने ईश्वर को तर्क से सिद्ध करने की कोशिश की होगी । उसी का स्मरण करते हुए मैं उन्हें विनत संवेदनांजलि अर्पित करता हूँ और लम्बे समय से एक तरह से उन्हें भूले रहने के अपने अपराध के लिए उन की स्मृति से क्षमा-याचना करता हूँ !
-- रवीन्द्र