(१)
मूढ़ पिता ने एक अधेड़ की सेज हेतु कुर्बान किया ।
छोड़ पढ़ाई - खेलकूद उस ने पतिगृह प्रस्थान किया ॥
उस निर्घृण मानव-समाज की मनु शोषित-दुखियारी थी ।
पिंजरे की अब बन कर मैना वह आफत की मारी थी ॥
मन में क्रीड़ा की उमंग, रानी का बोझ उठाना था ।
तेरह-वर्षीया को माँ बन जनता को अपनाना था ॥
‘देशभक्ति’ को आगे कर जीने का हक भी कुचल दिया
उस बच्ची का; सोचो, था दुनिया का दिल कितना घटिया ॥
तन थक कर था चूर,त्रस्त मन, सबविध विफल जवानी थी।
खूब सही थी मार वक्त की , जो झाँसी की रानी थी ॥
(२)
चित्रा-अर्जुन, शिव-भवानी की उपमा देना ठीक नहीं । बाप बराबर वर से बच्ची का रिश्ता क्या रहा सही ?
गर्भ-भार से लदी अल्प-वय में, पीड़ा वह भारी थी ।
शिशु से राजवंश अँकुरा, खुद छूँछी हो मनु हारी थी ॥
गुजरा समय -- वृद्ध राजा को यमपुर से न्यौता आया ।
विधवा के सादे लिबास ने घोंट-घोंट कर तड़पाया ॥
रूखी - सूखी दिनचर्या -- राजा का मान बचाना था ।
मन्त्री - कोष - प्रजा - सेना -- सब के ही साथ निभाना था ॥
‘जय’ मत बोलो, थोथी जय से क्या होता आराम यहाँ ?
सपनों से भी वंचित, ‘रानी’ मज़बूरी का नाम यहाँ ॥
कल्पित सुख, पर ठोस वेदना से रिसती ज़िन्दगानी थी ।
खूब सही थी मार वक्त की , जो झाँसी की रानी थी ॥