सत्-चित्-वेदनामय है जीवन! वेदना विषमता से प्रसूत है, जो नैसर्गिक नहीं, हमारे द्वारा निर्मित समाजार्थिक/ सांस्कृतिक ढाँचे की देन है । हम इस ज़मीनी हक़ीकत को समझें और इस की बुनियाद में रचनात्मक बदलाव लाने हेतु सजग-संलग्न रहें! ताकि, इस स्वच्छन्द खिलावट का जन्मसिद्ध अधिकार हर नर-नारी को उपलब्ध हो; न कि चन्द लोगों का विशेषाधिकार बन कर रह जाए!
जीवन-दर्शन के सूत्र
(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
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