समान्तर दृष्टि की राह ( रचनात्मक एवं वैचारिक परिदृश्य का स्त्री-विवेक)
प्रस्तुत पुस्तक विषय-साम्य की अपेक्षा दृष्टि-साम्य का परिणाम है । इस के अंगीभूत लेख समय-समय पर लिखे गये हैं । इन में अब तक बहु-प्रचलित रही पुरुष-दृष्टि के समान्तर मैं अपने-आप को खड़ा पाता हूँ । इस समान्तर विश्वदृष्टि का प्रचलित नाम स्त्री-विमर्श है,जो ज्ञान के हर अनुशासन में की गयी उपलब्धि को दुनिया की आधी आबादी के नज़रिये से , उस के योग-क्षेम की चिन्ता के साथ परखने का आग्रही है । साथ ही,वह इसी चिन्ता व नज़रिये से भावी सृष्टि रचने एवं ज्ञान-स्रोतों के पुनराविष्कार के लिए प्रतिबद्ध है । इस का सब से स्थूल व्यावहारिक प्रयोजन स्त्री-समस्या का निराकरण है,जिस का विकसित रूप स्त्री को पुरुष के बराबर इन्सान बनाना –- उसे कर्म-भोग व त्याग में पुरुष के समान सक्षम करना है । आमतौर पर इसी को ‘स्त्री-विमर्श’(नारीवाद) का पर्याय या उस की पूर्णता समझ लिया जाता है । परन्तु,यह तो सत्य का एक खण्ड भर है । मानवीयता की अपरिहार्य माँग हो कर भी यह न पर्याप्त है,न पूर्ण । स्त्री-विमर्श की पूर्णता ‘समान्तर विश्वदृष्टि’ बनने में ही है,जिस की एक छोटी सी कोशिश यह पुस्तक भी है । जाहिर सी बात है कि इस दृष्टि की न यह शुरुआत है,न अन्त और न यह पर्याप्त है ; पर इस के जरिये ‘परंपरा’ व ‘प्रचलन’ से समान्तरता का मेरा रिश्ता है – इसी विश्वास की साथ मैं खड़ा हूँ । यही विश्वास मेरी ऊर्जा का स्रोत है । इस के जरिये सब से बड़े जनसंख्या-वर्ग (जो साथ-साथ सब से बड़ा दलित वर्ग भी है) की अनदेखी-अधदेखी या उस के प्रति बने क्रूर पूर्वग्रह-जाल का किसी मात्रा में खण्डन-भंजन होते हुए प्रचलित वैचारिकी का लैंगिक न्याय (‘ज़ेण्डर जस्टिस’)-परक पुनर्गठन होगा,तो मेरी लेखनी को संतोष होगा ।
समान्तरता का इतना आग्रह कोई प्रतिसंसार रचने के लिए नहीं है और न ही यह प्रस्ताव है किसी विरोधी दृष्टि का । बात सिर्फ इतनी है कि कोई विचारधारा जब इतनी एकांगी व जटिल हो जाए कि उस के लिए कोई खास समूह, शेष जन-समुदाय को ‘अन्य’ बनाने की कीमत पर ‘अपना’ बन जाए और फिर उस ‘अन्य’ का कोई सक्रिय-धनात्मक स्थान भी उस विचारधारा में न रह जाए ; तो उसे काटने-तोड़ने और सही दिशा में मोड़ने हेतु किसी समान्तर दृष्टि की जरूरत होती है । समान्तरता का अन्तिम लक्ष्य पूरकता है । पुरुष-दृष्टि का प्रतिपक्ष होने की जगह, उसे संतुलित इन्सानी दृष्टि बनाने हेतु ही स्त्री-दृष्टि का यह प्रस्ताव है ।
इस संग्रहीभूत कृति में निम्नलिखित बड़े-छोटे कुल ८ आलेख हैं -
समान्तरता का इतना आग्रह कोई प्रतिसंसार रचने के लिए नहीं है और न ही यह प्रस्ताव है किसी विरोधी दृष्टि का । बात सिर्फ इतनी है कि कोई विचारधारा जब इतनी एकांगी व जटिल हो जाए कि उस के लिए कोई खास समूह, शेष जन-समुदाय को ‘अन्य’ बनाने की कीमत पर ‘अपना’ बन जाए और फिर उस ‘अन्य’ का कोई सक्रिय-धनात्मक स्थान भी उस विचारधारा में न रह जाए ; तो उसे काटने-तोड़ने और सही दिशा में मोड़ने हेतु किसी समान्तर दृष्टि की जरूरत होती है । समान्तरता का अन्तिम लक्ष्य पूरकता है । पुरुष-दृष्टि का प्रतिपक्ष होने की जगह, उसे संतुलित इन्सानी दृष्टि बनाने हेतु ही स्त्री-दृष्टि का यह प्रस्ताव है ।
इस संग्रहीभूत कृति में निम्नलिखित बड़े-छोटे कुल ८ आलेख हैं -
०) दस्तक (भूमिकालेख)
१) भक्ति-साहित्य की मूल्य-संरचना और स्त्री
२) समय से आगे थी नारी पर विनोबा की निगाह
३) ज़ंजीर तोड़ने वाली ऊष्मा की परिणति : बेनीपुरी की नयी नारी
४) आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की नारी-दृष्टि : चरित्र से प्रतीक की ओर साधना
५) नारीवादी अर्थशास्त्र के प्रयोक्ता प्रो. अमर्त्य सेन
६) प्रेम की आज़ादी के लिए परम्परा से विद्रोह काफी नहीं
७) लिंग-विमर्श के व्याकरणिक मंच के पीछे लिंग-भेद का सांस्कृतिक नेपथ्य
८) स्त्री-भाषा : अवधारणा और सम्भावना
पुस्तक के प्रथम आलेख (लगभग ५५ पृष्ठ) में यह प्रतिपादित किया गया है कि ‘हिन्दी-साहित्येतिहास का स्वर्णयुग’ कहे जाने वाले भक्तिकाल की प्रगतिशीलता के तमाम दावे आधी आबादी(स्त्री) का सवाल उपस्थित होते ही खोखले नज़र आने लगते हैं । सच तो यह है कि तत्कालीन रचनाशीलता (इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ कर) मध्यकाल के नारी-समाज की दाहक-दुर्दान्त,दिल दहला देने वाली वास्तविकता से न केवल निगाहें फेर कर बैठी थी,बल्कि पितृसत्तात्मक आदर्श की बेड़ियाँ स्त्री पर डाल कर उसे (वास्तविकता को) और भी जटिल बना रही थी । पर, सन्त-साहित्यिकों की चारित्रिक ऊँचाई के व्यामोह में पड़ा--साहित्येतिहासकारों व आलोचकों का बड़ा वर्ग , असिद्धि-अर्धसिद्धि और अवान्तर सिद्धि के रास्ते भक्तिकालीन उक्त असलियत को झुठलाते,ढँकते या अनदेखा करते रहा है । उस की पितृपक्षीय मानसिकता एक तरफ स्त्री-घाती मूल्यव्यवस्था के शिकार भक्त- रचनाकारों को क्लीनचीट देने से आगे बढ़ कर उन्हें गंगास्नान कराने में दृष्टिगत होती है ; तो दूसरी तरफ स्त्री-संत्रासक स्थितियों व उन के रचयिताओं के प्रतिरोध में उठीं ताक़तों(विशेषत: स्त्री-रचनाकारों) को भी न देख पाने या उन्हें हाशिये पर (फुटकल खाते में)ठेल देने में उजागर होती है । फिर,भक्तिकालीन साहित्य में व्याप्त प्रवृत्तियों का निर्धारण करते समय ‘स्त्री-निरपेक्षता से स्त्री-घात’ तक व्याप्त मूल्य-व्यवस्था को एक प्रवृत्ति के रूप में निर्धारित करना उन्हें काहे को सूझेगा ? इस आलेख में भक्तिकाल को केन्द्र में रख कर भारतीय समाज की संघटना में मौजूद उस वैचारिकी की छानबीन की गयी है,जो आज भी एक स्वतन्त्र, स्वस्थ, खुशहाल इन्सान के रूप में स्त्री का जीना मुहाल किए हुए है – जिस वैचारिकी को सम्भव बनाने में भक्तिकाल का भरसक योगदान रहा है ।
दूसरे आलेख में गाँधीवादी चिन्तक व महान् समाज-सुधारक विनोबा भावे के नारी-सम्बन्धी दर्शन की आश्चर्यजनक प्रगतिशीलता रेखांकित की गयी है । उस में कहा गया है कि स्त्री को पुरुष के बराबर मनुष्यता से युक्त मानना , उस का निर्भीक प्रतिपादन करना,उस की हर तरह की हीनता (चाहे वास्तविक हो या प्रतीकात्मक) के अन्त हेतु प्रयासरत रहना विनोबा की ताक़त है,परन्तु स्त्री-जागरण का क्षेत्र मूलतः कर्त्तव्य या अद्ध्यात्म में ढूँढ़ना उन की सीमा । परन्तु,साथ में यह भी ध्यातव्य है कि विनोबा का सुझाया गया अध्यात्म कोई ठण्डा लोहा या पत्थर नहीं,बल्कि वह क्रान्तिकारी हथियार है,जो नारी को शिक्षित व आत्मनिष्ठ बना कर पुरुष-रचित मूल्य-व्यवस्था का अन्त कर सकता है ।
तीसरा आलेख, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हिन्दी-पट्टी से स्त्री-मुक्ति के उभरे एक दुर्लभ ज्वलन्त पुरुष-स्वर की वैचारिकी की जहाँ परख है, वहीं हिन्दी के विमर्शकारों के बीच ‘कलम के जादूगर’ रामवृक्ष बेनीपुरी की उचित जगह की तलाश भी है । बेनीपुरी स्त्री की पूर्ण मुक्ति उस की तमाम मुक्तियों के बाद,पुरुष-विशेष के प्रति यौन-प्रतिबद्धता से उस के मुक्त हो जाने पर ही सम्भव मानते हैं—जो कि एकदम आधुनिक स्त्री-विमर्श का दृष्टिकोण है । प्रस्तुत आलेख पढ़ कर यह लग सकता है कि आज से सात दशक पहले इस प्रकार की वैचारिक ऊष्मा की साधना द्वारा जिस ने ‘संरचना’ को हिलाने की कोशिश की होगी,उस की समझ की ही नहीं हिम्मत की भी दाद देनी पड़ेगी ।
पुस्तक के चौथे आलेख में हिन्दी के महान् सांस्कृतिक रचनाकार,आलोचक और बहुविद् मनीषी आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के युगान्तकारी उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के सन्दर्भ में उन की नारी-दृष्टि की पड़ताल की गयी है । इस आलेख से द्विवेदी जी के स्त्री-प्रतिष्ठापक व्यक्तित्व का बहुश्रुत मिथक ध्वस्त होता है तथा यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि वर्ण/जाति के सन्दर्भ में वे लाख प्रगतिशील हों,पर ज़ेण्डर के सन्दर्भ में उन की विचार-संरचना मूलतः मध्ययुगीन फ़्रेम में ही सेट करती है । स्त्री को सौन्दर्य,कोमलता,मातृत्व,त्याग जैसे थोपे गये मूल्यों से गूँथ कर देखने के अपने अतिवादी आग्रह के कारण वे उसे एक स्वतन्त्र,आत्मनिर्भर,अधिकार-सम्पन भरे-पूरे इन्सान के रूप में पहचानने या प्रतिष्ठापित करने में असमर्थ हैं । वे स्त्री के प्रति ‘सरस श्रद्धा’ भले रख लें, ‘तत्त्व नारी’ की पीड़ा का आख्यान भले कर लें,पर जीवन-फलक पर किसी हाड़-माँस की नारी की वास्तविक पीड़ा दिखलाना उन के वश की बात नहीं लगती । इस का कारण शायद उन के विचारक का भौतिकवाद की ठोस ज़मीन की अपेक्षा आत्मवादी दर्शन व लालित्य की उड़ान में अधिक रमना है ।
पाँच वाँ आलेख अर्थशास्त्र की वैचारिकी में क्रान्तिकारी हस्तक्षेप करने वाले बहुमुखी चिन्तक प्रो. अमर्त्य सेन पर केन्द्रित है । इस आलेख में, जन्म,जीवन-धारण,सुविधा/स्वामित्व-प्राप्ति,घरेलू काम-काज आदि हर मामले में पुरुष के आगे स्त्री की तमाम वंचनाओं एवं उस के प्रति हो रहीं क्रूरताओं को केन्द्र में रख कर किये गये प्रो. सेन के विस्तृत व गहन चिन्तन का उद्घाटन किया गया है ,जिस की प्रस्थानभूमि अर्थशास्त्र है,पर वह व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक व अन्यान्य धरातलों पर भी विचरण करता है । स्त्री-पुरुष विषमता को सब से बड़ी-गम्भीर सामाजिक विफलता मानते हुए वे कहते हैं कि स्त्री का सशक्तीकरण केवल नारीवादी मुद्दा नहीं है,बल्कि वह सामाजिक प्रगति व विकास का अभिन्न अंग है । वे नारी की बहुविध पीड़ाओं से मुक्ति को बहुत जरूरी मानते हुए भी उसे पर्याप्त नहीं मानते,अपितु स्त्री की असली मुक्ति वे बृहत्तर सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक भूमिकाओं तक उठ कर उस के सक्रिय हो जाने में मानते हैं । यानी, स्त्री-मुक्ति मानव-मुक्ति का घटक बन कर ही उन के अनुसार उच्चतर लक्ष्य को प्राप्त करेगी । इसी धरातल पर प्रो.सेन नारीवादी अर्थशास्त्र के प्रयोक्ता बन कर उभरते हैं ।
छठा आलेख कात्यायनी की पुस्तक ‘प्रेम, परंपरा और विद्रोह’ की समीक्षा के जरिये प्रेम की समाजशास्त्रीय व्याख्या को आकार देने की कोशिश भी है । चूँकि प्रेम दो स्वतंत्र व्यक्ति ही कर सकते हैं,इसलिए प्रेम की प्रतिष्ठा वस्तुतः मानवीय स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा है; पितृसत्तात्मक समाज-संरचना के कारण खासकर स्त्री-स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा । इस के लिए समाजवादी क्रांति की जरूरत है,ऐसा कात्यायनी जी का विचार है,जिस से आलेख में सहमति व्यक्त की गयी है ।
सात वें व आठ वें आलेख समाज-भाषावैज्ञानिक दिशा में विवेचन करने वाले हैं । सातवें आलेख में यह दिखलाया गया है कि व्याकरण में व्याप्त ‘लिंग’ की अवधारणा व संरचना किस तरह समाज-रचना में व्याप्त स्त्री-पुरुष-विभेदों की परिणति व प्रतिबिम्ब है । समाज के मानस में व्याप्त लिंग-भेद पहले भाषा में उतरता है,जहाँ से वह अगला रूप व्याकरणिक लिंग-विमर्श का लेता है । जब तक व्याकरण में ‘लिंग’ की सत्ता रहेगी ,तब तक वह स्त्री-पुरुष की सामाजिक-सांस्कृतिक विषमता को विचारधारात्मक सहयोग भी देता रहेगा । इसलिए,वहाँ से उस के अवसान या प्रभाव-ह्रास की राह खोजनी होगी । ऐसा विचार व्यक्त करते हुए आलेख में, हिन्दी-व्याकरण के संदर्भ में उक्त दिशा में बढ़ने हेतु कुछ जरूरी संकेत भी किये गये हैं । इस के साथ, हिन्दी व्याकरण/भाषाशास्त्र के अन्यान्य स्त्री-सन्दर्भों का भी उपयोगी समावेश आलेख करता है । आठ वाँ आलेख, हर समाज में पितृसत्तात्मक घेरे व दबाव में क़ैद रही स्त्री के विकसित हो गये विशेष प्रकार के भाषिक अभिलक्षण (स्त्री-भाषा) की छानबीन करते हुए, कथित आम भाषा के स्त्री के प्रति किये गये / जा रहे बर्तावों पर प्रकाश डालता है । वह भाषा स्त्री के लिए अपर्याप्त, भेदभावकारी एवं बहुधा अपमानकारी तक है । इस स्पष्टीकरण के साथ आलेख यह प्रतिपादित करता है कि समाज का विकास जितना ही समतामूलक होते जाएगा और स्त्री जितना ही मुक्त होती जाएगी, उस (कथित आम भाषा) का उतना ही लोकतान्त्रिकीकरण होते जाएगा, जिस से स्त्री के लायक उचित व मानवीय भाषा का आकार लेना उतना ही सम्भव होगा ।
दूसरे आलेख में गाँधीवादी चिन्तक व महान् समाज-सुधारक विनोबा भावे के नारी-सम्बन्धी दर्शन की आश्चर्यजनक प्रगतिशीलता रेखांकित की गयी है । उस में कहा गया है कि स्त्री को पुरुष के बराबर मनुष्यता से युक्त मानना , उस का निर्भीक प्रतिपादन करना,उस की हर तरह की हीनता (चाहे वास्तविक हो या प्रतीकात्मक) के अन्त हेतु प्रयासरत रहना विनोबा की ताक़त है,परन्तु स्त्री-जागरण का क्षेत्र मूलतः कर्त्तव्य या अद्ध्यात्म में ढूँढ़ना उन की सीमा । परन्तु,साथ में यह भी ध्यातव्य है कि विनोबा का सुझाया गया अध्यात्म कोई ठण्डा लोहा या पत्थर नहीं,बल्कि वह क्रान्तिकारी हथियार है,जो नारी को शिक्षित व आत्मनिष्ठ बना कर पुरुष-रचित मूल्य-व्यवस्था का अन्त कर सकता है ।
तीसरा आलेख, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हिन्दी-पट्टी से स्त्री-मुक्ति के उभरे एक दुर्लभ ज्वलन्त पुरुष-स्वर की वैचारिकी की जहाँ परख है, वहीं हिन्दी के विमर्शकारों के बीच ‘कलम के जादूगर’ रामवृक्ष बेनीपुरी की उचित जगह की तलाश भी है । बेनीपुरी स्त्री की पूर्ण मुक्ति उस की तमाम मुक्तियों के बाद,पुरुष-विशेष के प्रति यौन-प्रतिबद्धता से उस के मुक्त हो जाने पर ही सम्भव मानते हैं—जो कि एकदम आधुनिक स्त्री-विमर्श का दृष्टिकोण है । प्रस्तुत आलेख पढ़ कर यह लग सकता है कि आज से सात दशक पहले इस प्रकार की वैचारिक ऊष्मा की साधना द्वारा जिस ने ‘संरचना’ को हिलाने की कोशिश की होगी,उस की समझ की ही नहीं हिम्मत की भी दाद देनी पड़ेगी ।
पुस्तक के चौथे आलेख में हिन्दी के महान् सांस्कृतिक रचनाकार,आलोचक और बहुविद् मनीषी आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के युगान्तकारी उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के सन्दर्भ में उन की नारी-दृष्टि की पड़ताल की गयी है । इस आलेख से द्विवेदी जी के स्त्री-प्रतिष्ठापक व्यक्तित्व का बहुश्रुत मिथक ध्वस्त होता है तथा यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि वर्ण/जाति के सन्दर्भ में वे लाख प्रगतिशील हों,पर ज़ेण्डर के सन्दर्भ में उन की विचार-संरचना मूलतः मध्ययुगीन फ़्रेम में ही सेट करती है । स्त्री को सौन्दर्य,कोमलता,मातृत्व,त्याग जैसे थोपे गये मूल्यों से गूँथ कर देखने के अपने अतिवादी आग्रह के कारण वे उसे एक स्वतन्त्र,आत्मनिर्भर,अधिकार-सम्पन भरे-पूरे इन्सान के रूप में पहचानने या प्रतिष्ठापित करने में असमर्थ हैं । वे स्त्री के प्रति ‘सरस श्रद्धा’ भले रख लें, ‘तत्त्व नारी’ की पीड़ा का आख्यान भले कर लें,पर जीवन-फलक पर किसी हाड़-माँस की नारी की वास्तविक पीड़ा दिखलाना उन के वश की बात नहीं लगती । इस का कारण शायद उन के विचारक का भौतिकवाद की ठोस ज़मीन की अपेक्षा आत्मवादी दर्शन व लालित्य की उड़ान में अधिक रमना है ।
पाँच वाँ आलेख अर्थशास्त्र की वैचारिकी में क्रान्तिकारी हस्तक्षेप करने वाले बहुमुखी चिन्तक प्रो. अमर्त्य सेन पर केन्द्रित है । इस आलेख में, जन्म,जीवन-धारण,सुविधा/स्वामित्व-प्राप्ति,घरेलू काम-काज आदि हर मामले में पुरुष के आगे स्त्री की तमाम वंचनाओं एवं उस के प्रति हो रहीं क्रूरताओं को केन्द्र में रख कर किये गये प्रो. सेन के विस्तृत व गहन चिन्तन का उद्घाटन किया गया है ,जिस की प्रस्थानभूमि अर्थशास्त्र है,पर वह व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक व अन्यान्य धरातलों पर भी विचरण करता है । स्त्री-पुरुष विषमता को सब से बड़ी-गम्भीर सामाजिक विफलता मानते हुए वे कहते हैं कि स्त्री का सशक्तीकरण केवल नारीवादी मुद्दा नहीं है,बल्कि वह सामाजिक प्रगति व विकास का अभिन्न अंग है । वे नारी की बहुविध पीड़ाओं से मुक्ति को बहुत जरूरी मानते हुए भी उसे पर्याप्त नहीं मानते,अपितु स्त्री की असली मुक्ति वे बृहत्तर सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक भूमिकाओं तक उठ कर उस के सक्रिय हो जाने में मानते हैं । यानी, स्त्री-मुक्ति मानव-मुक्ति का घटक बन कर ही उन के अनुसार उच्चतर लक्ष्य को प्राप्त करेगी । इसी धरातल पर प्रो.सेन नारीवादी अर्थशास्त्र के प्रयोक्ता बन कर उभरते हैं ।
छठा आलेख कात्यायनी की पुस्तक ‘प्रेम, परंपरा और विद्रोह’ की समीक्षा के जरिये प्रेम की समाजशास्त्रीय व्याख्या को आकार देने की कोशिश भी है । चूँकि प्रेम दो स्वतंत्र व्यक्ति ही कर सकते हैं,इसलिए प्रेम की प्रतिष्ठा वस्तुतः मानवीय स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा है; पितृसत्तात्मक समाज-संरचना के कारण खासकर स्त्री-स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा । इस के लिए समाजवादी क्रांति की जरूरत है,ऐसा कात्यायनी जी का विचार है,जिस से आलेख में सहमति व्यक्त की गयी है ।
सात वें व आठ वें आलेख समाज-भाषावैज्ञानिक दिशा में विवेचन करने वाले हैं । सातवें आलेख में यह दिखलाया गया है कि व्याकरण में व्याप्त ‘लिंग’ की अवधारणा व संरचना किस तरह समाज-रचना में व्याप्त स्त्री-पुरुष-विभेदों की परिणति व प्रतिबिम्ब है । समाज के मानस में व्याप्त लिंग-भेद पहले भाषा में उतरता है,जहाँ से वह अगला रूप व्याकरणिक लिंग-विमर्श का लेता है । जब तक व्याकरण में ‘लिंग’ की सत्ता रहेगी ,तब तक वह स्त्री-पुरुष की सामाजिक-सांस्कृतिक विषमता को विचारधारात्मक सहयोग भी देता रहेगा । इसलिए,वहाँ से उस के अवसान या प्रभाव-ह्रास की राह खोजनी होगी । ऐसा विचार व्यक्त करते हुए आलेख में, हिन्दी-व्याकरण के संदर्भ में उक्त दिशा में बढ़ने हेतु कुछ जरूरी संकेत भी किये गये हैं । इस के साथ, हिन्दी व्याकरण/भाषाशास्त्र के अन्यान्य स्त्री-सन्दर्भों का भी उपयोगी समावेश आलेख करता है । आठ वाँ आलेख, हर समाज में पितृसत्तात्मक घेरे व दबाव में क़ैद रही स्त्री के विकसित हो गये विशेष प्रकार के भाषिक अभिलक्षण (स्त्री-भाषा) की छानबीन करते हुए, कथित आम भाषा के स्त्री के प्रति किये गये / जा रहे बर्तावों पर प्रकाश डालता है । वह भाषा स्त्री के लिए अपर्याप्त, भेदभावकारी एवं बहुधा अपमानकारी तक है । इस स्पष्टीकरण के साथ आलेख यह प्रतिपादित करता है कि समाज का विकास जितना ही समतामूलक होते जाएगा और स्त्री जितना ही मुक्त होती जाएगी, उस (कथित आम भाषा) का उतना ही लोकतान्त्रिकीकरण होते जाएगा, जिस से स्त्री के लायक उचित व मानवीय भाषा का आकार लेना उतना ही सम्भव होगा ।
प्रस्तुत पुस्तक में, परिवार व समाज में कई तरह से व कई तरह के सवालों में घिरी स्त्री के अस्तित्व और उस की त्रासदी को सम्बोधित कुछ आलेख हैं , जो सामाजिक संरचना से टकराहट और उसे बदल डालने की छटपटाहट से भरे हुए हैं । समग्रतः, पुस्तक अपने नाम के अनुरूप परिदृश्य के कुछेक प्रस्थान-भूमियों/बिन्दुओं की स्त्री-दृष्टि से छानबीन और स्त्री की बदहाली के कई चित्र दिखलाते हुए, उस के ज़रिये एक समान्तर विचार-दर्शन का प्रस्ताव है, जो आधी आबादी को न्याय प्रदान करते हुए, लोकतांत्रिक समाज-रचना में रही बड़ी कमी को दूर करने की प्रतिबद्धता की राह पर खड़ा है ।
-- डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक (सहायक प्राध्यापक, हिन्दी-विभाग, जी.एल.ए. कॉलेज, मेदिनीनगर, झारखण्ड)
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