जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

“स्त्रीविमर्श पर जरूरी किताब’ - मुद्राराक्षस (‘जनसंख्या-समस्या के स्त्रीपाठ के रास्ते...’ पुस्तक की समीक्षा ‘समय लाइव.कॉम’ पर दिसम्बर २०१० को प्रकाशित)

स्त्री विमर्श पर जरूरी किताब

मुद्राराक्षस
'आदर्श बहू माने क्या?
अच्छी रसोइया, पांच गज की साड़ी और घूंघट की कैद को गरिमा से ढोती, ससुराल के सभी जनों का ख्याल रखती, सबके रोष सहती विशेषत: पति का रोष, दासी बनी रहने के साथ ही काम सेविका और संतानोत्पादन यंत्र बनी रहने वाली स्त्री! कभी कुछ न चाहे और सब कुछ सहे- ऐसी स्त्री! यानी व्यक्तित्वहीन, लतखोर एवं परजीवी बनी स्त्री!'
कल्याण से लेकर अनेक अन्य हिंदू प्रकाशनों में आदर्श बहू का ठीक यही चित्र मिलता है। कालिदास के विख्यात नाटक 'अभिज्ञान शाकुंतलम' में शकुंतला जब दुष्यंत के पास भेजी जा रही होती है तो आश्रम की वरिष्ठ साध्वियां उसे ठीक इसी प्रकार की शिक्षा देती हैं।
देश में स्त्री जीवन की इस दुर्दशा की समग्र सामाजिक-ऐतिहासिक विवेचना करने वाली एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण किताब झारखंड में कार्यरत रवींद्र कुमार पाठक की आयी है-'जनसंख्या समस्या के स्त्रीपाठ के रास्ते' किताब की जितनी ही ज्यादा अहमियत है, हिंदी की दुनिया में उसे उतने ही ठंडेपन से लिया गया है। जितनी महत्वपूर्ण यह किताब है उसे एक संक्षिप्त टिप्पणी के जरिये ठीक से समझाना थोड़ा कठिन काम है। विषय प्रवर्तन भारतीय जनसंख्या और इस पर नियंत्रण के व्यापक आयोजन से होता है लेकिन इसमें जनसंख्या नियंत्रण के सारे प्रयत्न कितने अधिक पितृसत्तात्मक हैं और वे प्राय: जनसंख्या नियंत्रण के बजाय कैसे अन्तत: व्यावहारिक रूप से कोख नियंत्रण में बदल जाते हैं, इसकी प्रामाणिक और तथ्यात्मक तस्वीर मिलती है।
लेखक ने सप्रमाण यह सिद्ध किया कि जनसंख्या बढ़ने का अर्थ है नारी के सशक्तिकरण की प्रक्रिया का ह्मास और नारी के शक्ति सम्पन्न न हो पाने का सीधा अर्थ है जनसंख्या बढ़ना। अमत्र्य सेन के हवाले से यह कहा गया है जन्मदर ज्यादा बढ़ने का मतलब है स्त्री जीवन पर दुष्प्रभाव बढ़ते जाना। इस संदर्भ में लेखक ने यह दुखद सत्य भी रेखांकित किया है कि आरएसएस के प्रमुख ने दो साल पहले हिंदू माताओं को सलाह दी थी कि संतान पैदा करो-एक दो नहीं, तीन और उससे ज्यादा जितनी पैदा कर सको उतना अच्छा। धार्मिक जनसांख्यिकी पर एक किताब का लोकार्पण करते हुए उन्होंने 'हम दो-हमारे दो' नीति के झांसे में न आने का आह्वान करते हुए ढेर सारी बातों के क्रम में एक ऐसी वीर माता का भी उल्लेख किया जिसके सत्रह बच्चे थे तथा वह और बच्चे चाह रही थी।
जनसंख्या नियंत्रण का एक बड़ा उपाय है नसबंदी और पुरुष के लिए तो यह इतना आसान है कि नसबंदी के तुरंत बाद वह घर जा सकता है लेकिन इस सिलसिले में जो तथ्य इस किताब में उद्धृत किये गये हैं वे हैरान करने वाले हैं। भारतीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार 1998-1999 में महिला नसबंदी का प्रतिशत 34.1 था जबकि पुरुषों का प्रतिशत कुल 1.0 था। पुरुष अधिकांशत: स्वयं नसबंदी कराने के बजाय पत्नी को ही नसबंदी के लिए मजबूर करता है। लेखक के शब्दों में सरकार की ढिलाई के कारण जनसंख्या नियंत्रण का कार्यक्रम पुरुष को इससे मुक्त रखते हुए स्त्री की कोख पर नियंत्रण का रूप ले चुका है।
भारत में शिशु जन्मदर को लेकर लेखक की टिप्पणी दिलचस्प है- यहां प्रतिदिन 48,000 बच्चे जन्म ले रहे हैं। पर यह नहीं कहा जाता है कि भारत में प्रतिदिन 48,000 स्त्रियां (जिनमें ढेर सारी 18 साल से कम उम्र की नादान किशोरियां भी हैं) मां बनने यानी गर्भभार व प्रसव पीड़ा झेलने और फिर अगले काफी समय तक शारीरिक-मानसिक यंत्रणाओं व लालन-पालन की व्यस्तता से व्यक्तित्वनाश की गुलामियों में पड़ जाती हैं। जनसंख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी पर यह कटु टिप्पणी देखने लायक है-मर्दानगी के भ्रामक जाल में उलझे होने के कारण पुरुष नसबंदी कराना अपनी हेठी समझते हैं, हर तरह से संत्रस्त अपनी पत्नी को ही बाध्य कर देते हैं बंध्याकरण के लिए।
इस प्रसंग में लेखक ने बड़े पैमाने पर हिंदू धर्मग्रंथों से उद्धरण दिये हैं कि कैसे स्त्री को सिर्फ पुत्रप्राप्ति का साधन माना गया है और कैसे यह सिद्ध किया गया है कि पुत्री दरिद्रता होती है और पुत्र ज्योति स्वरूप होता है। कन्या के लिए नहीं, पुत्रेष्टि यज्ञ पुत्र के लिए होता है। निश्चय है हिंदी में पिछले दो-ढाई दशकों में स्त्री विमर्श का जो बड़ा आंदोलन सामने आया उसके लिए इस तरह की वैचारिक किताब की बहुत बड़ी जरूरत थी। इस जरूरत को यह किताब बखूबी निभाती है। स्त्री विमर्श में स्वर्गीय प्रभा खेतान, रमणिका गुप्ता, विमल थोराट जैसी लेखिकाओं ने काफी कुछ लिखा है लेकिन पाठक की उक्त किताब फिर भी बहुत काम की सिद्ध होगी।


लिंक :-    http://www.samaylive.com/article-analysis-in-hindi/105979/female-needed-to-exchange-the-book.html

‘जनसंख्या-समस्या के स्त्रीपाठ के रास्ते...’ पुस्तक की समीक्षारेणु विहान द्वारा (‘रिव्यू ऑफ़ रिसर्च जर्नल’ के ५ फरवरी, २०१५ अंक में)