जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

रविवार, 25 मार्च 2012

‘साहित्य’

‘साहित्य’ से मनुष्य की सारी समस्याओं के समाधान हो जाएँगे -- ऐसा सोचना भोलापन होगा । वस्तुत: किसी भी ज्ञान में यह ताकत नहीं कि इन्सानी जीवन की समस्त समस्याओं को सुलझा दे, तो ‘साहित्य’ से वे भला क्या सुलझेंगी ? समस्याओं के सुलझाने का मुख्य साधन ‘व्यवस्था’ का चरित्र-परिवर्तन है । वह व्यवस्था चाहे प्रशासनिक-राजनैतिक हो या सामाजिक-संस्कृतिक, उसी से इन्सान का योग-क्षेम जुड़ा होता है, उसी से हमारा जीवन आकार पाता है । उस में संगत बदलाव लाए बिना हमारी पीड़ाएँ या उलझनें दूर नहीं होतीं । परन्तु, व्यवस्था से पीड़ित इन्सान/समूह का चित्रण करने, उस की पीड़ा के प्रति सब को संवेदनशील बनाने तथा इस सन्दर्भ में व्यवस्था-परिवर्तन/उन्मूलन की जरूरत महसूस कराने का महत्तर कार्य साहित्य ही कर सकता है । कारण, ‘साहित्य’ के स्वरूप में ही यह बात निहित है । ‘साहित्य’ है क्या ? तमाम तरह की बातों, परिभाषाओं या विवादों(डिस्कोर्सों) के बाद यदि हम उन का सार इकट्ठा कर कहें, तो ‘‘साहित्य वह विधा है, जिस का स्वरूप शब्द-अर्थ के परस्पर-प्रतिस्पर्धी (समतुल) भाव से युक्त भाषा के कल्पनामय (सौन्दर्यमूलक) - बिम्बात्मक प्रयोग के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जिस में मानवीय भावों एवं जीवन-प्रसंगों व मानवीय सम्बन्धों का चित्रण होता है तथा जो अपने साक्षात्कार-कर्त्ताओं (दर्शकों, पाठकों, श्रोताओं) में तत्तुल्य भाव-बोध या रसानुभूति जगाने की क्षमता रखती है , जिस के जरिये वह हमारी मनोवृत्तियों का परिष्कार करते हुए शेष सृष्टि (मानव-समाज) के साथ हमें संयुक्त करती है तथा हमें (व हमारे जीवन को) परिवर्तन की बेहतर दिशा भी दिखाती है । ’’ (भाषा का शिक्षण व शोध भी साहित्यानुशीलन का ही गौण/पूरक अंग है ।) इन सारी बातों का समाहार करते हुए हम रचयिता और ग्रहीता के बीच में घटित होने वाली, रचना और आस्वादन-प्रयोजन की पूरी प्रक्रिया को ही ‘साहित्य’ (पुराना नाम ‘काव्य’) कह सकते हैं । यानी, ‘साहित्य’ किसी ग्रन्थ-रूप का पर्याय न हो कर, रचनाकार के मानस में शुरु हुई सर्जनात्मक अनुभूति से ले कर ग्रहीता (सामाजिक) के चित्त में निष्पन्न भाव/रस की अनुभूति तक व्याप्त वाङ्मय-दृश्यमय व मानसिक क्रियामय दीर्घ व्यापार है, जिस का चरम छोर मानवीय जीवन को एकसूत्र में अनुस्यूत करने और उस में सार्थक बदलाव लाने तक जाता है । इसी से साहित्य समाज का दर्पण भर नहीं, उस की पुन:रचना और मार्गदर्शक होता है ।

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