जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

शर्म करें और राष्ट्रीय शोक-दिवस मनाएँ

2011 की जनगणना की अभी-अभी प्रकाशित प्रारम्भिक रिपोर्ट ने हमारे स्त्री-पूजक, आत्मवादी व विश्वगुरु (?) देश का घिनौना चेहरा बेनकाब किया है , जो इन 10 सालों में कन्या-वध की ओर और भयंकर रूप से अग्रसर हुआ है । दिल दहला देने वाला तथ्य यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर 0-6 वर्ष के आयु-वर्ग में प्रति 1000 लड़कों पर आज केवल 914 लड़कियाँ बच रही हैं । दस साल पहले (2001) यह संख्या 927 थी, जो 1991 के आकलन (945) से 18 गिर कर हुई थी । यानी, पिछले 20 सालों में 31 की खतरनाक गिरावट ! ये वे बीस साल हैं, जिन में स्त्री-सशक्तीकरण व बालिका-उत्थान के ढेर सारे नारों व कार्यक्रमों का शोर सुनाई पड़ा है, पर नतीजा सामने है । स्पष्ट है कि तमाम सरकारी कार्यक्रम बेटावादी ज़हर से भरी और लड़कियों के हत्याभियान में लगी सामाजिक संरचना को बदलने में बिल्कुल नाकाम रहे हैं । इस विकराल सामाजिक , पारिस्थितिकीय व मानवीय समस्या पर सोचना या संवेदित होना तो जैसे कुछ पेशेवर बुद्धिजीवियों भर का कर्त्तव्य रह गया है ( वह भी अक्सर इस चिन्ता/सोच से प्रेरित हो कर कि मर्दों के लिए कहीं बीवियों का अकाल न हो जाए! (1) वह भी बौद्धिक अय्याशी अधिक ! ) बाकी लोगों को क्रिकेट-विश्वकप में भारतीय विजय के एनेस्थिसिया और सचिन तेन्दुलकर को भारत रत्न बनाने , अभिषेक-ऐश्वर्या जैसी भड़कीली शादियों में खोने , सलमान की मूँछों (दबंग) में उलझे रहने, नज़र-सुरक्षा कवच खरीदने व धार्मिक ठेलमठेल में शरीक होने आदि से फुरसत मिले तब न ! लगता है, नशीली बेशर्मी को ही हम ने अपना राष्ट्रधर्म बना लिया है । दोस्तो ! बहनो! भाइयो! यह वक्त एक नकली युद्ध (मैच) में भारत को विश्व-विजेता बनाने के लिए व्रत रखने या सपनों में खोने का नहीं, बल्कि कन्याओं को मिटाने में खुद लगे रहने या हत्या/हत्यारों के प्रति कम से कम तटस्थ या सहिष्णु बने रहने या ऐसे दाहक सवालों से मुँह मोड़ कर जीने के लिए शर्म करने का है । साथ ही, यह वक्त लिंग-भेद के इस परिदृश्य पर विचार करने का भी है कि देश की लड़कियाँ किसी समय यदि ‘महिला विश्व क्रिकेट’ के फ़ाइनल में भी पहुँची रहती हैं, तो भी वे किसी की ज़ुबान पर, किसी के ज्ञान तक में नहीं रहतीं, जब कि उसी समय पुरुष-क्रिकेट के किसी अदना से मैच में देश की जीत/बढ़त भी संक्रामक चर्चा का विषय बनी रहती है । ऐसे समय में देश के राष्ट्रपति/ प्रधानमन्त्री को चाहिए कि आज के दिन ( 2 अप्रैल) को राष्ट्रीय शोक-दिवस घोषित करें । आइये ! हम आज के विश्वकप फ़ाइनल मैच का बहिष्कार करें और जन्म लेने से वंचित की गयीं व जन्म-बाद उपेक्षा-अभाव से मार डाली गयीं करोड़ों बच्चियों के लिए राष्ट्रीय शोक मनाएँ ! --- रवीन्द्र कुमार पाठक औरंगाबाद,बिहार / 2-04-2011


__________________________________________________________________--

1)

स्त्री को बचना चाहिए इसलिए नहीं कि उसे तुम्हारी प्रेयसी बनना है, उसे तुम्हारी पत्नी बनना है । इसलिए नहीं कि उसे तुम्हारी बहन बनना है। इसलिए भी नहीं कि वह तुम्हारी जननी है और तुम जैसों को आगे भी पैदा करती रहे ! उसे बचना चाहिए, बल्कि उसे बचने का पूरा हक़ है – राजनैतिक हक़, इसलिए कि वह भी तुम्हारी तरह हाड़-माँस की इन्सान है ।

तुम ने उसे देवमन्दिर कहा और बना दिया देवदासी। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते..’ और ‘ कार्येषु दासी शयनेषु रम्भा ‘ को एक साथ तुम्हारा ही पाखण्डी दर्शन साध सकता था ! देवी बनाना या उसे श्रद्धा बताना भी तो अपमान है उस की इन्सानियत का – उस की इच्छा , वासना, भोग-त्यागमय सहज स्पन्दनों का या है उसे जड़ता प्रदान कर देना ,पत्थर में तब्दील कर के। ”

-- रवीन्द्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें