जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

रविवार, 24 अप्रैल 2011

संस्कृति की बेटावादी संरचना का प्रभुत्व : स्त्री का घुटता और घटता अस्तित्व


युग-युग से चली आ रही, समाज की यह विषम संरचना है जिस के कारण स्त्री को पुरुष की तुलना में हर स्तर पर उपेक्षा, वंचना व उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है । उस की पीड़ा और अभावग्रस्तता की यह करुण कहानी बढते-बढ़ते आज अपने चरम रूप ‘नारियों के अभाव’ को प्राप्त हो चली है -- यह दिल दहलाने वाला तथ्य है , जिस पर आमतौर पर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है । पोषण , स्वास्थ्य-सुविधा आदि में भेदभाव के चलते स्त्री की अस्वाभाविक मरणशीलता तो रही ही है; परन्तु क्रूर सच्चाई यह है कि बेटे की चाहत में नवजात कन्या को मौत के घाट उतारने के ढेर सारे तरीके अतीत के धुँधलके से वर्तमान के रोशन इलाकों तक में प्रचलित रहे हैं । लिंग-परीक्षण की तकनीक की खोज ने तो ‘कन्या-वध’ की इस कुत्सित परम्परा में आज भीषण उछाल ला दिया है । बेटे पैदा करने के चौतरफा दबाव ने स्त्री को अपनी अजन्मी बच्ची की हत्यारिन तथा उस की कोख को कसाईघर बना डाला है। । देश की आबादी में ०-६ वर्षीय पुरुष-स्त्री-अनुपात, यानी लिंगानुपात पिछले ७० सालों में ९६ अंक नीचे गिर कर २०११ ई। में ९१४ हो चुका है । स्त्री की लगातार घटती संख्या का जिम्मेदार है--जनमानस में भयंकर रूप से बैठा पुत्र-मोह / पुत्री-द्रोह , जिसका धारक है पितृसत्तात्मक सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक ढाँचा तथा मर्द-केन्द्रित अर्थव्यवस्था । इस से बड़ी विसंगति और क्या हो सकती है कि सदियों से चल रहे इस हत्या-काण्ड को रोकने का प्रयास होता है या उस पर कोई चर्चा भी होती है, तो इसलिए कि समाज के ठेकेदारों को मर्दों के लिए बीवियों का अकाल दिखाई देने लगा है, जिस से एक ही पत्नी में भाई लोगों को शेयर तक करना पड़ रहा है । इसलिए नहीं कि लड़की को भी जीने का उतना ही हक़ है जितना लड़के को। ‘लिंग-परीक्षण’ रोकने के लिए बना कानून(२००२ई.) तो लगभग बेअसर है, जो करोड़ों में इक्का-दुक्का को ही सज़ा दे पाया है । स्त्री यदि इसी तरह अनचाही व घटती प्रजाति बनी रही, तो मर्दवादी समाज में उस की स्थिति मुर्गियों से भी बदतर हो जाएगी -- वह खुलेआम वीभत्स नोंच-खसोट की चीज बन जाएगी । तब, कहाँ होंगे हमारी लोकतांत्रिक संरचना या समता के दावे अथवा आज ही वे हैं कहाँ ?

--- रवीन्द्र कुमार पाठक
व्याख्याता,जी.एल.ए.कॉलेज,मेदिनीनगर(डाल्टनगंज),झारखण्ड-८२२१०२

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