जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

रविवार, 17 जुलाई 2011

स्वार्थ (कविता)

पुरुषत्व-मोह में अन्धे
या, मर्दानगी के मद से फुफकारते -
पति के कुलनाम की बैसाखी
या उस के वास्तविक (समूचे)
नाम का पूरा-पूरा लिहाफ ही
चाहिए जिसे,
उस बेपहचान-गुमनाम
औरत की दुनिया में
पुरुषों की व्यक्तिगत सफलता या विजय के निनाद
सुनते-सुनते पक गये हैं मेरे कान ।

मुझे सुनाई देता है उन मे
मूक व नासमझ कराह - अवसाद
उन बच्चियों का --
जिन के बॉल-पतंगें, किताब या दूध तक छीन कर
सर्वस्व निछावर किये गये उन के नाकारा-आवारा भाइयों पर ।
ठोंकी गयी उन की पीठ बराबर --
ऋषि-युग से कालिदास, कबीर-तुलसी के युग तक,
प्रसाद-धूमिल से तसलीमा के इस समय तक ।

इतनी बार लगातार जोर-जोर से ठोंकी गयी वह
कि आये दिन
उन में से कोई-न-कोई
बज ही जाता है लाल किला या स्टॉक-एक्सचेंज पर,
चढ़ ही जाता है एवरेस्ट या चाँद पर ।
अन्यथा वे भाई
अण्डरवर्ल्ड के ‘भाई लोग ’ तो बन जाते हैं
सहज ही --
जहाँ उन की बहनों की साँस तक पर पहरे बिठाए गये हों
और उन भाइयों की उद्दण्ड चाहों
की सवारी के लिए ‘बाइक’ दे दिये जाएँ बिन माँगे ही ।

ऐसे समय में
जब सामूहिकता पुंलिंग हुई बैठी है,
किसी समूह-हित में भी
तप गयी, खप गयी या गुम हो गयी
किसी स्त्री का चेहरा धुँधला-सा
कैसे सूरज बन कर उग सकता है
मेरे मन के दिशाकाश में ?
किसी रत्नावली, जीजाबाई, लक्ष्मीबाई
या राखी लिए कलाई खोजती
किसी लड़की को ही देख कर
कैसे जुड़ सकते हैं ये नयन ?

जब औरत की व्यक्तिगत ‘जय’ की बात तो दूर,
उस की ऐसी जयाकांक्षा तक सुनने को
तरस गये हैं मेरे पाँच हज़ार साल पुराने कान ;
रसोईघर की ‘खद-बद’ या बिस्तर की ‘सी-सी’
में जब सुनता हूँ उस का ‘दॅ एण्ड’
तब, सामूहिक / ग्लोबल हो चुके इस समय में
यदि दिखता है कोई पुरुष
‘इन्सान’ होने के लिए ग़ुम हो रहा
या मानव-मुक्ति की बड़ी लड़ाई में विजयी हो रहा,
तो कितना सोना लगता है !
परन्तु , उस से भी अधिक सोना लगता है
किसी लड़की का हॉकी खेलना, गाना,
पढ़ना या तन कर चलना ही शर्म-मुक्त
अथवा पार्क में टहलना
या पसरी रहना ही ।
कितनी सोनी लगती है वह !
जो ‘बाप’ के लिए नोट छापने की मशीन बनने को तैयार, कैरियरनिष्ठ,
विवाह-बाज़ार के बिकाऊ पट्ठों की कतार से
एकदम अलग --
गा रही है, खिलखिला रही है,
चौके-छक्के जमा रही है
अथवा सी.बी.एस.ई.परीक्षा में हर साल अव्वल आ रही है,
(शायद) केवल अपने लिए ।
०००००००००००००००००००००

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें