जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

रविवार, 8 अगस्त 2010

औरत की ज़ुबान काटने की संस्कृति यानी हमारा विकलांग संस्कृति-बोध

♦ आवेश तिवारी 5 August 2010


लगभग 200 लोगों की भीड़ के सामने पंचायत में बैठे लोगों ने जागेश्वरी के दोनों हाथों और पैरों को जकड़ रखा था। जागेश्वरी का पति, अंधा पिता और उसके दो माह से लेकर आठ साल तक के चार बेटों के रोने से पूरा करहिया कांप रहा था। पंचायत ने कहा, जीभ बाहर निकालो। जागेश्वरी ने जीभ थोड़ी सी बाहर निकाली। वहीं मौजूद सहदेव के बेटे ने उसकी जीभ पकड़ कर बाहर खिंच दी और एक ही प्रहार में तेजधार बलुए से अलग कर दिया। पंचायत का मानना था कि जोगेश्वरी डायन है और उसकी वजह से ही उसके पड़ोसी सहदेव के एक नवजात बच्चे की अकाल मौत हुई थी।


ये हिंदुस्तान में कानून व्यवस्था की कब्रगाह पर नाच रही पंचायतों का अब तक के सबसे खौफनाक कुकृत्यों में से एक है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद के करहिया गांव में हुई इस वारदात का ब्योरा लेने जब हम वहां पहुंचे, तो अस्पताल के बाहर एक पेड़ के नीचे लेटी हुई जागेश्वरी असहनीय दर्द के बावजूद अपने दो माह के बच्चे को दूध पिला रही थी। सरकारी अस्पताल के जिस कमरे में उसे रखा गया था, वहां से भी उसे बाहर खदेड़ दिया गया, क्योंकि अस्पताल में चिकित्सक मौजूद नहीं थे।



  • रवीन्द्र कुमार पाठक

आवेश जी,


आप ने इस घिनौनी हरकत को उजागर कर पत्रकार-धर्म का पालन किया और हमारी मनुष्यता को झिंझोड़ा ; इस के लिए आभार ! औरत की जीभ काटने की यह घटना पहली है , अन्तिम ; बल्कि इस तरह और इस से भी अधिक पैशाचिक दुष्कर्म स्त्री के साथ घर-बाहर सब जगह कई सदियों से होते रहे हैं औरत को कुचलते रहने की युगयुगीन सामाजिक-सांस्कृतिक मर्दानगी इन के मूल में है , जो स्त्री की देह(यौनिकता,जनन-शक्ति,श्रम-शक्ति) या उस के धन पर गिद्ध-निगाह लगाए रहती है और जब मौका पाती है,उसे चुपके से दबोच कर चबा जाती है और डकार तक नहीं लेती यदि स्त्री का जागरित व्यक्तित्व उस का प्रतिरोध करता हैअपनी ज़ुबान या देह से उक्त प्रकार की संगठित गुण्डागर्दी को चुनौती देता है ; तो इस लोकतांत्रिक समाज में भी उसे बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़्ती है ,जैसी करहिया गाँव (सोनभद्र)की जागेश्वरी को बिना किसी कारण के चुकानी पड़ी यह माँ की महिमा का चूर्ण फाँकते औरजै माता दीके गलाफाड़ू उद्घोष में हर दिन अरबों-खरबों गँवाते, देवी-पूजक भारतवर्ष का सच हैऔरत के इन्सानी चेहरे में उसेडाइनयाकुलटानज़र आती है किसी स्त्री को अपने चंगुल में फँसा पाने में नाकामयाब होने पर, मर्दवादी अन्धविश्वास/धार्मिकता या लोकमत का सहारा ले कर, उसे बदनाम करना,बर्बर यातनाएँ देना या खुलेआम हत्या तक कर डालना समाज के प्रभुओं(?) के लिए कोई मुश्किल बात नहीं है यह यदि जंगलीपन है ,तो ऐसा जंगल शहरों में भी कम नहीं उगा हुआ है उक्त औरत की ज़ुबान काट डालने के दोषी उस गाँव के केवल एक-दो लोग नहीं,बल्कि हर वह (वयस्क)आदमजात गुनहगार है,जो उक्त काण्ड के समय मूक/मुखर रह कर दर्शन-रस से अपनी आत्मा के किसी वहशी कोने को तर कर रहा था साथ ही, वे सभी पत्रकार-मीडियाकर्मी-अखबार भी गुनहगार हैं,जिन्हों नेआई.पी.एल.भारत’(यानी इण्डिया)की चाकरी मेंबी.पी.एल.भारतको गिरवी रख दिया है,जो ऐश्वर्या या सानिया की शादी के खबर-रासोत्सव में महीने भर डूब सकते हैं,पर जागेश्वरी या भँवरी के लिए दस मिनट का भी समय नहीं निकाल सकते अपने स्वार्थ-आराम या महान् संस्कृति की एनेस्थेसिया के शिकार, हम सब क्या कम अपराधी हैं,जो सदियों से यह सब काण्ड देख रहे हैं मौनी बाबा बन कर ? देख ही नहीं रहे,बल्कि खुद भी काट डाल रहे हैं आस-पास की औरतों की जीभ (अपनी माँ-बहन-बेटी-बीवी या प्रेमिका या किसी भी स्त्री की ज़ुबान पर घोषित या अघोषित सेन्सर लगा कर) भारत-सरकार भी तो तसलीमा को राज़ी करने में लगी हुई है कि ज़ुबान कटवा लो ,तब यहाँ रहो अस्तु ! जागेश्वरी के प्रसंग में सभी अपराधियों पर सख्त से सख्त और जल्द से जल्द कार्रवाई का आह्वान करते हुए मैं फिर से एक बार मूल बात पर कर अपनी महान् पितृसत्तात्मक परंपरा को धिक्कारना चाहूँगा,जो स्त्री की ज़ुबान से डर कर जीभ ही नहीं काट देती,बल्कि उस की यौनिकता आदि सभी ताकतों से भयभीत रह कर सदियों से उस के हर अंग कासुन्नतकर डालती रही है सदियों से अपनी कटी हुई ज़ुबान ले कर भी, महा-मुखर हो कर हर स्त्री को लालकिले से चिल्ला कर पूछना होगा इस परंपरा के वंशजों से –“ मर्दानगी की फ़ोबिया के शिकार कायरो ! क्या तुम सब में इतनी हिम्मत,इतना बल कभी आएगा कि एक पूरी औरत का मुकाबला कर सको-उस के साथ रह सको या उसे साथ रख सको,हर जगह्,हर समय ?” रवीन्द्र कुमार पाठक व्याख्याता,जी.एल..कॉलेज,डाल्टनगंज (झारखण्ड).फ़ोन-०९८०१०९१६८२



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