जीवन-दर्शन के सूत्र

(1) “ अगर इन्सानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है ।” -- डॉ. भीमराव आम्बेडकर (2) “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उस की आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।” -- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

बुधवार, 11 अगस्त 2010

इन अतिवादियों से कैसे निबटें ?

आये दिन हम देखते हैं कि आम जन या कोई भी कानून-सम्मत अपने किसी अधिकार का प्रयोग करता है या समाज/व्यवस्था को कुछ और लोकतान्त्रिक बनाने की दिशा में सरकारी या असरकारी स्तर पर कहीं कोई जरूरी कदम उठाया जाता है , तो समाज/संस्कृति के कुछ स्वयम्भू ठेकेदार सामने आ जाते हैं, जो संगठित गुण्डागर्दी के रूप उस का तीखा विरोध करते-कराते हैं ,जिस से क्षण भर को लगने लगता है कि यहाँ राज्य-व्यवस्था नहीं, बल्कि अराजक भीड़ या जंगल-तन्त्र है । इन हुड़दंगियों द्वारा पैदा किये गये उबाल कभी किसी लेखक/कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को कुचल डालते हैं,तो कभी दो जनों (स्त्री-पुरुष) की आपसी रज़ामन्दी (प्रेम,विवाह,वैलेण्टाइन या फ्रेण्डशिप डे) पर भी पत्थर बरसाते हैं ( या बर्बरता की सारी हदों को पार करते, उन्हें सरेआम काट डालते या फाँसी पर लटका तक देते हैं) ; कभी किसी महिला या महिला-मात्र की खास पोशाक पर ही फ़तवेबाजी करने लगते हैं, कभी हमारी जीवन-शैली या सांस्कृतिक सम्बन्धों की पूर्त्ति की राह में रोड़े बन जाते हैं, तो कभी खास समूह को खास समूह के खिलाफ़ भड़का कर उन्हें खूनी होली खेलने तक पहुँचा देते हैं । हमारे देश में इस किस्से का कुछ भी नाम हो सकता है, शक्ल कुछ भी हो सकती है -- खाप-पंचायत, मठ/मदरसा, निजी सेना, राजनैतिक गुट, कथित सांस्कृतिक संगठन कुछ भी, पर चरित्र एक है सब का –- खुद तालीबानीकृत मानसिकता में जीना और लोगों के अमन-चैन या सुकून की राह में काँटे बोते,उन के मधुर सम्बन्धों में ज़हर घोलते, हर व्यवस्था या विकास/प्रगति की प्रक्रिया का हिंसक तरीके से चक्काजाम कर देना ।

आखिर इन से निबटा जाए तो कैसे ? सच तो यह है कि इन की ताकत के मूलस्रोत को समझे बिना इन का उन्मूलन सम्भव नहीं । इन अराजक-अमानवीय तत्त्वों का मूल स्रोत जनता के अवचेतन में सोया संकीर्णता-बोध का वह भूत है,जिसे भावनात्मक उबाल के जरिये जगा कर ये आसानी से कानून-व्यवस्था व सामाजिक शान्ति-सौहार्द को तार-तार कर/करवा देते हैं । इस संकीर्णता-बोध के अनेक चेहरे हैं – जाति,भाषा,पन्थ/मज़हब, नस्ल आदि ,जिन्हें उत्तेजित कर ये तत्त्व आम जन को उस की मूल पहचान (इन्सानियत) के बोध से कुछ क्षण/काल के लिए विलग कर, उसे व्यक्ति की जगह एक भीड़ का हिस्सा बना डालते हैं । फिर, भीड़ के पास कोई विवेक तो होता नहीं,इसलिए उस से चाहे जो कुछ अच्छा-बुरा करवा लो—बहुत आसान है। कुछ समय की ऐसी उत्तेजनावस्था(दौरा) जब दूर होती है, तो उन के बहकावे में आये किसी व्यक्ति के हाथ लगती है सिर्फ पछतावे की अन्तहीन चुभन या गहन रिक्तता ।

सवाल है कि इन सिरफिरे-उपद्रवियों के खुलेआम ऐसे किये गये कांडों को कानून-व्यवस्था के पुरोधा शासक-प्रशासक मूकदर्शक बन कर देखते क्यों रहते हैं ? इस का आसान सा उत्तर है, अपने वोट-बैंक में दरार पड़ने के डर से वे सही समय पर जरूरी हस्तक्षेप करने की जगह ‘महाभारत’ के भीष्म की तरह परमहंसी चुप्पी साधे रहते हैं अथवा ‘गोल-मटोलवाद’ के तहत रस्मी कार्रवाई भर कर के रह जाते हैं । कई बार तो राजनैतिक दलों की आपसी क्षुद्र उठा-पटक के तहत, एक दल दूसरे के वोट-बैंक में सेन्ध लगाने हेतु ऐसे तत्त्वों को अपने मौन और यदा-कदा मुखरता से समर्थन करता दिखता है अथवा कोई दल अपना खिसक रहा वोट-बैंक सम्हालने या अपनी प्रशासनिक विफलता से लोगों का ध्यान हटाने के लिए भी ऐसे चरमपंथी दंगाइयों के साथ हो लेता है । महाराष्ट्र में बिहारियों के साथ ‘मनसे’ की गुंडागर्दी के प्रति केन्द्र में सत्तासीन कांग्रेस का रवैया हो, कर्नाटक या उडीसा में श्रीराम सेना आदि हिन्दू तालिबानियों के महिला व ईसाई-द्रोही उपद्रवों के समय राज्य-सतासीन भाजपा का रवैया हो या बंगाल में स्त्री-मुक्ति की लेखिका तसलीमा के पीछे हाथ धो कर पड़ गये मुस्लिम कट्टरपंथी-अराजकतावादियों के प्रति सत्तासीन वाममोर्चे का रवैया हो अथवा हरियाणा में नौनिहालों के प्रेम व जीने के अधिकार का गला घोंटने को बेताब मध्ययुगीन खाप-पंचायतों का खुल कर समर्थन करते कुछ सांसद-विधायकों का मसला हो ; सब का एक ही आन्तरिक चरित्र है – ‘हमारी वैधानिक-प्रशासनिक छतरी के नीचे हिंसक हुड़दंग मचाते रहो,अच्छा ही है। हम कुछ नहीं बोलेंगे क्योंकि तुम हमारा ही काम कर रहे हो – सत्ता पाने/ उस में बने रहने का हमारा शॉर्टकट ही तो तैयार कर रहे हो ।’

यदि हम अपनी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को इन चन्द क्रूरकर्मा अपराधियों का बन्धक बनने से रोकना चाहते हैं,तो सब से पहले ‘सत्य’ को खुलेआम स्वीकारने और ‘झूठ’ की खुलेआम भर्त्सना करने का साहस अपने-आप में हमें जगाना होगा । कीचड़ को हमें हर समय कीचड़ ही समझना और उस से दूर रहना सीखना होगा,चाहे वह अपने घर-आँगन का ही क्यों न हो हो । उसे माथे का चन्दन बनाने से बाज आना होगा । हमें ऐसे तत्त्वों के हाथों का खिलौना बनने से खुद को बचाना होगा तथा संकीर्ण राजनीति का चरित्र पहचान कर, मतदान द्वारा धक्का दे कर उसे अतीत की कब्र में दफ़न कर देना होगा । साथ ही, हमें रचनात्मक राजनीति को सत्तासीन करना होगा, जो प्रगतिशील दिशा में सक्रिय रहे और ऐसे विषखोंपड़ों को कानूनी सिकंजे में कस कर निर्मूल करते रहे । पर, इन का असली निर्मूलीकरण तभी होगा जब हम सब अपने मानसिक गठन में निहित क्षुद्र अस्मिता-बोधों को विराट् मानवता-बोध में रूपान्तरित कर डालें । यह काम आसान नहीं है, पर शुरु तो किया ही जा सकता है ।

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n डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक

व्याख्याता,हिन्दी-विभाग, जी.एल.ए.कॉलेज, डाल्टनगंज (झारखण्ड)

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